
अठावले पाण्डुरंग शास्त्री का जीवन परिचय (Athavale Pandurang Shastri Biography In Hindi Language)
नाम : अठावले पाण्डुरंग शास्त्री
जन्म : 19 अक्टूबर 1920
जन्मस्थान : रोहा, मुम्बई
मृत्यु : 25 अक्टूबर, 2003
उपलब्धियां : महात्मा गाँधी पुरस्कार (1988), टेंप्लेशन प्राइज (1997), मैग्सेसे पुरस्कार (1996) |
वेदों और उपनिषदों में भारत की अकूत ज्ञान सम्पदा निहित है तथा हिन्दू संस्कृति उससे इस सीमा तक समृद्ध है कि उसके माध्यम से आधुनिक भारत का निर्माण किया जा सकता है । अठावले पाण्डुरंग शास्त्री ने इस तथ्य को समझा तथा उन कारणों की खोज की जिनको उन ग्रन्थों की सामर्थ्य की उपेक्षा के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है । अठावले ने युक्तिपूर्वक वेदों, उपनिषदों तथा हिन्दू संस्कृति की आध्यात्मिक शक्ति को पुनर्जागृत किया तथा भारत के सामाजिक रूपान्तरण में उस ज्ञान तथा विवेक का प्रयोग सम्भव बनाया । अठावले पाण्डुरंग शास्त्री को सामुदायिक नेतृत्व के लिए 1996 का मैग्सेसे पुरस्कार प्रदान किया गया |
अठावले पाण्डुरंग शास्त्री का जीवन परिचय (Athavale Pandurang Shastri Biography In Hindi)
अठावले पाण्डुरंग शास्त्री का जन्म 19 अक्टूबर 1920 को मुम्बई के पास रोहा में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था । धार्मिक प्रवृत्तियों से परिपूर्ण पाण्डुरंग के परिवार में विद्वत्ता की परम्परा थी और उसी को आगे बढ़ाते हुए इन्होंने भी संस्कृत भाषा का ज्ञान प्राप्त किया और हिन्दू ग्रन्धों के अध्ययन में लग गए ।
पाण्डुरंग ने अपनी स्व-प्रेरणा से स्वाध्याय आन्दोलन चलाया, जो भगवद्गीता पर आधारित था । इसी स्वाध्याय के आधार पर पाण्डुरंग ने युक्ति निकाली कि इससे सामाजिक, आर्थिक समस्याओं का समुचित समाधान किया जा सकता है । पाण्डुरंग ने स्वाध्याय से अनुभव और परिपक्वता का सम्बन्ध जोड़ते हुए समाज में इसका महत्त्व प्रचारित किया तथा बहुत सी समस्याओं का हल प्रस्तुत किया ।
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1954 में पाण्डुरंग को शिमत्सू जापान में ‘दूसरा विश्व धर्म सम्मेलन’ में भाग लेने का अवसर मिला । वहाँ इस सम्मेलन में इन्होंने वैदिक ज्ञान तथा जीवन दर्शन के महत्त्व पर व्याख्यान दिया तथा उसे अपनाए जाने पर जोर दिया । वहाँ उस सभा में उनसे एक श्रोता ने प्रश्न किया,
”आपके देश में क्या कोई एक भी सम्प्रदाय ऐसा है, जो इन आदर्शों तथा जीवन-दर्शन को जीवन व्यवहार में अपनाए हुए है… ?’ ‘
इस प्रश्न ने अठावले को परेशान कर दिया । वह चुपचाप वहाँ से लौट आए तथा उन्होंने स्वदेश आकर भारतीय जीवन की वर्तमान तथा प्रासंगिक स्थिति पर विचार तथा चर्चा करनी शुरू कर दी ।
इसी विचार से पाण्डुरंग ने 1956 में एक विद्यालय की स्थापना की, जिसका नाम, ‘तत्व ज्ञान विद्यापीठ’ रखा । इस स्कूल में उन्होंने भारत के आदिकालीन ज्ञान तथा पाश्चात्य ज्ञान, दोनों का समन्वय रखा । वह लगातार भ्रमण करते हुए जन संपर्क में लग गए । वह युवा जिज्ञासु लोगों से मिलते रहे । इन्होंने डॉक्टरों, इन्जीनियरों, वकीलों, तथा उद्योगपतियों से बात की तथा उन्हें स्वाध्याय के माध्यम से आत्म चेतना जगाने का सन्देश दिया । उन्होंने समाज में यह आदर्श स्थापित करने की कोशिश की, कि लोग अपने व्यस्त जीवन से कुछ समय निकाल कर ईश्वर का ध्यान करें तथा भक्ति भाव अपनाएँ ।
अठावले के इस आहूवान पर 1958 में उनके भक्तों ने गाँव-गाँव घूमकर अठावले का सन्देश प्रसारित करते हुए स्वाध्याय की महिमा सबको बतानी शुरू की और उन्होंने अपने गुरु का यह विवेक सबको दिया कि स्वाध्याय के मार्ग में किसी भी धर्म, जाति या स्त्री, पुरुष का कोई भेद नहीं है और धर्म मानव जाति की बराबरी में विश्वास करता है । अठावले के इस स्वाध्याय आन्दोलन ने लगातार विकास किया और उसके अनुयायियों की संख्या लगातार बढ़ती चली गई और पाण्डुरंग अठावले शास्त्री अपने भक्तों के बीच दादा (बड़ा भाई) कहकर सम्बोधित किए जाने लगे ।
1964 में पोप पॉल चतुर्थ भारत आए और उन्होंने दादा से उनके दर्शन को लेकर चर्चा की ।
दादा के आन्दोलन में समाज सुधार की जबरदस्त शक्ति देखने को मिली ।
कितने ही लोगों ने मद्यपान छोड़ दिया, जुआ खेलना बन्द कर दिया, इससे घर परिवार में पत्नियों को प्रताड़ित करना भी रुका । छोटे-मोटे अपराधों में लिप्त लोग सामुदायिक बेहतरी के कामों में रुचि लेने लगे ।
पाण्डुरंग अठावले शास्त्री के इस आन्दोलन ने एक मनोहारी दृश्य उपस्थित किया और यह दैनिक संस्कृति बन गई । स्थानीय मछुआरे संस्कृत के श्लोक गाते हुए काम पर जाते तथा जितनी भी मछलियाँ मिलतीं उसमें से गरीबों का अंश निकाल कर बाँट देते । उनके लिए उनकी नावें मन्दिर की संज्ञा पा गईं । गाँव वालों ने बड़े विस्तार में वृक्षारोपण किया और उन वृक्षों को मन्दिर वृक्ष कहा गया । इससे बंजर धरती कुछ समय में हरियाली से भर गई ।
दादा के स्वाध्याय व्यवहार से गाँवों की संस्कृति बदलने लगी । गाँवों में सफाई की चेतना आई । परिवारों के बीच पास-पड़ोस तक में सद्भावना का पुनर्संचार हुआ । बच्चे प्रसन्नचित्त स्कूल जाने लगे । गाँवों में अस्पृश्यता जैसी भावना खत्म होने लगी । किसानों ने एक ऐसी जगह मिलकर चुन ली, जिसे ईश्वर का खेत कहा गया और उसकी उपज जरूरत मंदों को दिए जाने के लिए रखी गई । यहाँ तक कि विभिन्न धर्मों के पूजा स्थल एक स्थान पर आ गए ।
पाण्डुरंग अठावले शास्त्री ने गाँव-गाँव में जाकर यह सन्देश दिया कि स्वाध्याय का राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है । इसे दुनिया की मुश्किलें हल करने की चाबी नहीं समझा जाना चाहिए, स्वाध्याय के जरिए तो हम बस, प्रेम, पारस्परिक, शान्ति तथा निस्वार्थ भाव की संस्कृति फैला रहे हैं ।
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पाण्डुरंग ईश्वर को सर्वविद्यमान होने का सन्देश देते हैं तथा आध्यात्मिक एकता उनका अभीष्ट है । वह पुरातन कालीन हिन्दू ज्ञान सम्पदा की बात तथा उसका महत्त्व उसी श्रद्धा से बताते हैं, जिससे वह पाश्चात्य विचारकों का जिक्र करते हैं । वह अपने श्रोताओं को खुद से मुक्त करने की प्रेरणा देते हैं । वह कहते है स्वबंधन जटिल है ।
वर्ष 1988 में दादा पाण्डुरंग को महात्मा गाँधी पुरस्कार दिया गया । 19 मार्च 1995 में इन्होंने अपने भक्तों की विशाल जनसभा को सम्बोधित किया । यह सभा राजकोट में जुटी थी । 1997 में पाण्डुरंग को टेंप्लेशन प्राइज अपने क्षेत्र में प्रगति के लिए दिया गया ।
25 अक्टूबर को दादा पाण्डुरंग ‘अठावले शास्त्री, इस संसार से विदा हो गए ।
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