चंडी प्रसाद भट्ट का जीवन परिचय Chandi Prasad Bhatt Ki Biography In Hindi

Chandi Prasad Bhatt Ka Jeevan Parichay

चंडी प्रसाद भट्ट का जीवन परिचय (Chandi Prasad Bhatt Ki Biography In Hindi Language)

Chandi Prasad Bhatt Ka Jeevan Parichay

नाम : चंडी प्रसाद भट्ट
पिता का नाम : गंगा राम भट्ट
माता का नाम : महेशी देवी
जन्म : 23 जून 1934
जन्मस्थान : गोपेश्वर, जिला चमोली, (उत्तराखण्ड)
उपलब्धियां : पद्मभूषण (2005), मैग्सेसे (1982), ‘पद्‌मश्री’ (1983), ‘डॉक्टर ऑफ साइंस’ की मानद उपाधि |

हिमालय के पर्वतीय क्षेत्र में वन सम्पदा के अँधाधुँध दोहन ने बहुत सी प्राकृतिक आपदाओं को न्योता दिया और उनसे वहाँ के निवासियों को जान-माल का गहरा नुकसान हुआ | इसके बावजूद व्यावसायिक हितों के कारण इस सन्दर्भ में सुझाव और चेतावनी की अनदेखी की जाती रही । पर्वतीय क्षेत्र के गाँव वाले जिन वनों पर निर्भर करते थे, उन पर ठेकेदारों का हक था और वनों से वृक्षों को निर्दयतापूर्वक काटा जाता था । ऐसे में चंडी प्रसाद भट्ट ने पेड़ों की रक्षा के लिए जन कार्यक्रम चलाया जिसका नाम ‘चिपको आन्दोलन’ दिया गया । इसमें गाँव की स्त्रियों की भी भूमिका बनाई गई | सारे लोग वनों में फैलकर वृक्षों से चिपक कर खड़े होते थे और उनके तने को बाहों में भर लेते थे यह आन्दोलन प्रभावकारी रहा और इसके लिए चंडी प्रसाद भट्ट को वर्ष 1982 का मैग्सेसे पुरस्कार दिया गया ।

चंडी प्रसाद भट्ट का जीवन परिचय Chandi Prasad Bhatt Ka Jeevan Parichay

चंडी प्रसाद भट्ट का जन्म 23 जून 1934 को उत्तराखण्ड के चमोली जिले के गोपेश्वर गाँव में हुआ था । वह एक छोटा-सा गाँव था । वहाँ जमीन की कमी थी । और रोजगार की भी स्थिति अच्छी नहीं थी, इसलिए वह ऋषिकेश आ गए और एक बस कम्पनी में टिकट क्लर्क का काम करने लगे ।

चंडी प्रसाद के मन में पहाड़ के लोगों के प्रति चिन्ता बनी रहती थी क्योंकि सभी की हालत खराब थी । गरीबी की दूसरी वजहों के अलावा एक बड़ा कारण वनों के बारे में सरकार की जन विरोधी नीतियाँ थीं ।

पहाड़ पर गाँवों में रहने वाले लोग काफी हद तक वनों पर आश्रित थे । ईंधन, पशुओं का चारा तथा औजार आदि बनाने के लिए लकड़ी वनों से ही मिलती थी, जब कि वनों के स्थानीय निवासियों के उपयोग पर सरकार की बंदिश लगी हुई थी । बड़े ठेकेदार नीलामी बोली बोलकर वन का अधिकार लेते थे और स्थानीय निवासियों पर उनका कहर टूटता था । यह परंपरा 1917 से अंग्रेजों के समय से चली आ रही थी, जिसे स्वराज के बाद ज्यों-का-त्यों बनाए रखा गया था । इस बंदिश की वजह से पहाड़ों पर गाँवों की स्त्रियों को ईंधन तथा पशुओं के चारे के लिए मीलों पैदल जाना पड़ता था, जबकि वन उनके पास ही था ।

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1956 में भट्ट ने महात्मा गाँधी के अनुयायी जयप्रकाश नारायण का भाषण सुना और उससे बहुत प्रभावित हुए । भट्ट ने जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर गाँव के युवकों को संगठित किया और गाँधीवादी अभियान पर गाँव वालों को आर्थिक विकास तथा नशा बंदी के लिए सचेत करने लगे । उनका अभियान पूरे उत्तराखण्ड में चलने लगा ।

1964 में भट्ट ने दशोली ग्राम स्वराज मंडल का गठन किया । इस मण्डल के माध्यम से उन्होंने वन आधारित उद्योगों पर ध्यान केन्द्रित किया, जिससे लोगों को अपने घरों के पास ही रोजगार मिल सके । इस मण्डल का केन्द्र गोपेश्वर ही बनाया गया । इन्होंने लकड़ी का सामान बनाने तथा आयुर्वेदिक इलाज के लिए जड़ी-बूटियों को इकट्ठा करने तथा बेचने का कार्यक्रम संचालित किया । साथ ही चंडी प्रसाद भट्ट ने गाँव वालों को उनकी कुछ बुराइयों से बचाने का भी अभियान चलाया । उन्होंने गाँव वालों को शोषण के खिलाफ एकजुट होकर उससे बचने के लिए तैयार किया ।

चंडी प्रसाद भट्ट की यह कार्यवाही पूरी तरह वन आधारित थी और वनों पर स्थानीय लोगों का वैधानिक अधिकार बहुत कम था । वनों के ज्यादातर हिस्सों पर ठेकेदारों का कब्जा था । ठेकेदार वनों के कानूनी हकदार थे । इस स्थिति से निपटने के लिए भट्ट ने 1973 में अलग-अलग वनों के क्षेत्र में गाँव वालों को संगठित किया और उन्हें चिपको आन्दोलन के लिए तैयार किया । वनों की इस सम्पदा से वंचित होने का सबसे ज्यादा कष्ट गाँव की स्त्रियों को था । भट्ट ने स्त्री वर्ग को विशेष रूप से इस चिपको आन्दोलन के लिए संगठित किया ।

चंडी प्रसाद भट्ट के लिए यह एक रोमांचक अनुभव था । गाँव की स्त्रियाँ एक-एक पेड़ से चिपककर उसे बांहों में भर लेती थीं और खड़ी रहती थी । इस आन्दोलन का संकेत था कि पेड़ काटने के लिए ठेकेदार के लोगों को आन्दोलनकारियों पर वार करना होगा । यह उनके लिए एक कठिन स्थिति थी । भट्ट सफलता को विस्मय से देखते थे कि वन के सभी पेड़ों पर उनके आन्दोलनकारी चिपके हुए खड़े हैं और पेड़ों के कटने में एक सार्थक हस्तक्षेप बन गया है ।

चंडी प्रसाद भट्ट को यह स्पष्ट तौर पर मालूम था कि जंगल में पेड़ों को काटकर ठेकेदार द्वारा ले जाया जाना केवल सम्पत्ति से वंचित रह जाना भर नहीं था बल्कि वनों के वृक्ष रहित हो जाने से दूसरे गम्भीर खतरे भी देखे गए थे । 20 जुलाई 1970 को बादल फटने से अलखनंदा नदी के पानी का स्तर 60 फुट उठ गया था, जिसने  400 वर्ग मील क्षेत्र में बाढ़ की स्थिति ला दी थी । 330 फीट नीचे स्थित गाउना झील में पहाड़ों का मलबा भर गया था तथा वह नहरें मलबे के गिरने से बन्द हो गई थीं, जो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक लाख एकड़ भूमि की सिंचाई करती थीं । चंडी प्रसाद भट्ट के सामने यह स्पष्ट था कि यदि पहाड़ों पर सघन पेड़ खड़े होते तो वह पानी के बहाव को रोकते तथा इतना मलबा नीचे न जाता । साथ ही बादल फटने से पानी का तेज बहाव जो जमीन का क्षरण करता है, वह भी पेड़ों के कारण होने से बच जाता । जुलाई 1970 में मकानों तथा जानमाल का नुकसान हुआ । पशुसम्पदा की जो क्षति हुई वह भयंकर रूप से दर्दनाक थी । इसी तरह चंडी प्रसाद भट्ट के सामने 1978 का भूस्सलन था जिसने भागीरथी नदी का प्रवाह दो मील की दूरी तक अवरुद्ध का दिया था ।

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भट्ट ने चिपको आन्दोलन के समर्थकों को, जिनमें, स्त्री-पुरुष सभी शामिल थे, पेड़ों की महत्ता समझाई जिससे उनमें और भी गहरा उत्साह भर गया और वह भट्ट के साथ एकजुट हो गए ।

भट्ट का यह आन्दोलन अहिंसक नीति पर आधारित था तथा इसमें भावात्मक लगाव की भावना जुड़ी हुई थी, जैसे स्थानीय, निवासी पेड़ों को अपने परिवार के सदस्यों सा मान रहे हों । भट्ट ने पर्यावरण विकास कैंप भी लगाए । उनके इस आयोजन में बहुत से समर्थक वैज्ञानिक अधिकारी तथा छात्र आ जुड़े जिससे उन्हें बाहर के लोगों का भी समर्थन मिलने लगा ।

भट्ट के दल ने न केवल आन्दोलन किया साथ ही उन लोगों ने पेड़ भी लगाए तथा गाँवों में नर्सरी स्थापित की गई । पहाड़ों की ढलान को व्यवस्थित किया गया ताकि पानी के बहाव से जमीन का कटाव कम हो सके । भूस्खलन से पथरीली चट्टानों को तलहटी तक जाने से रोकने के लिए दीवारें खड़ी की गईं ।

चंडी प्रसाद भट्ट के लिए यह कड़ा रोमांचक रहा कि जहाँ सरकार द्वारा लगाए गए पेड़ों में केवल एक तिहाई जिन्दा रहे, वहाँ भट्ट के साथियों द्वारा रोपे गए 88 प्रतिशत पेड़ पनप कर उग खड़े हुए ।

भट्ट अपने आन्दोलन की पैरवी में दूर-दूर तक, यहाँ तक कि विदेश भी गए, लेकिन वह रहे वाही अपने समुदाय के व्यक्ति | उन्होंने सादा जीवन नहीं छोड़ा |

चंडी प्रसाद भट्ट को भारत सरकार ने 1983 में पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया | 2005 में उन्हें पद्मभूषण सम्मान दिया गया तथा गोविन्द वल्लभ पन्त कृषि विश्वविद्यालय ने उन्हें 2008 में ‘डॉक्टर ऑफ साइंस’ की मानद उपाधि से विभूषित किया।

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