
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस पर निबंध – Essay On Subhash Chandra Bose In Hindi Language)
ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेंकने के लिए भारत के बच्चे-बच्चे को स्वतन्त्रता की बलिवेदी पर हंस-हंस कर अपनी जान न्योछावर करने को तैयार करने के लिए, “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा” का नारा देकर जिस महायोद्धा ने स्वतन्त्रता सेनानियों के खून में शक्ति का संचार करते हुए संपूर्ण देश का अभूतपूर्व नेतृत्व किया, वह महान स्वतन्त्रता सेनानी सुभाष चन्द्र बोस किसी परिचय के मोहताज नहीं | उनके राजनीतिक कौशल, नेतृत्व क्षमता एवं अदम्य साहस व शौर्य का ही कमाल था कि पूरी दुनिया को अपनी शक्ति से भयभीत कर देने वाला नाजीवाद जर्मन तानाशाह हिटलर भी उनसे प्रभावित होकर अपने सैनिकों को उन्हें शाही सलामी देने का आदेश देने को बाध्य हो गया |
ऐसे महान व्यक्तित्व सुभाष चन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा प्रांत के कटक शहर में हुआ था | उनके पिता जानकीनाथ बोस एक प्रसिद्ध सरकारी वकील थे जिनके पूर्वज पश्चिम बंगाल के चौबीस परगना जिले के केदालिया गांव के निवासी थे | सुभाष चन्द्र की प्रारंभिक शिक्षा कटक में ही हुई थी | आगे की शिक्षा के लिए उन्होंने कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश लिया | उनके पिता चाहते थे कि वह प्रशासनिक अधिकारी बने, अपने पिता के इस सपने को साकार करने के उद्देश्य से कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी.ए करने के बाद वे इंग्लैंड चले गए और 1920 ई. में भारतीय सिविल सर्विस की परीक्षा में चौथा स्थान प्राप्त किया | उस समय आई.सी.एस. की परीक्षा पास करना आसान नहीं था | इस महत्वपूर्ण उपलब्धि को प्राप्त करने के बाद भी उन्हें अंग्रेजों के अधीन कार्य करना स्वीकार नहीं था | अतः उन्होंने या नौकरी करने से इंकार कर दिया और देश के स्वतन्त्रता संग्राम में कूद गए |
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अंग्रेजो के खिलाफ संघर्ष की शुरुआत करते हुए सुभाष चन्द्र बोस देशबंधू चितरंजन के सहयोगी बन गए | प्रिंस ऑफ वेल्स के स्वागत के बहिष्कार में उन्हें प्रथम बार गिरफ्तार कर 6 माह की सजा दी गई |
सन 1924 में जब देशबंधु कलकत्ता के मेयर बने, तब सुभाष चन्द्र को उन्होंने चीफ एग्जीक्यूटिव ऑफिसर बनाया | उनके स्वतन्त्रता उन्मुखी कार्यक्रमों एंव क्रियाकलापों से भयभीत होकर सरकार ने उन्हें उसी वर्ष फिर गिरफ्तार कर जेल भेज दिया, पर वह उन्हें अधिक समय तक कैद नहीं रख सकी और 15 मई 1927 को उन्हें रिहा कर दिया गया | इस समय तक वे देश के प्रखर नेता बन चुके थे और उनकी ख्याति देश की सीमा को लाँघ कर जर्मनी, जापान, अमेरिका, सोवियत रूस जैसे देशों तक पहुंच चुकी थी | 26 जनवरी 1930 को कलकत्ता के मेयर पद पर रहते हुए नेताजी ने आजादी के दिन की घोषणा के साथ विशाल निकाला, जिसके कारण उन्हें फिर गिरफ्तार कर असहनीय यातनाएं दी गईं | जेल में उनका स्वास्थ्य जब अत्यधिक बिगड़ गया, तो सरकार ने उन्हें इस शर्त पर रिहा किया कि वे रिहा होने के बाद सीधे यूरोप चले जाएंगे, अतः वे रिहा होने के तुरंत बाद अपने सम्बन्धियों से मिले बिना ही वायुयान द्वारा स्विट्ज़रलैंड चले गए | यह वास्तव में सरकार की सोची-समझी चाल थी | उन्हें रिहा नहीं किया गया था, बल्कि निर्वासन दिया गया था और यह बात स्पष्टतः सिद्ध हो गई जब अपने पिता की मृत्यु पर स्वदेश लौटते ही गिरफ्तार कर उन्हें उनके घर में ही नजर बंद कर दिया गया | लगभग एक माह तक वे इसी तरह नजरबन्द रहे, इस दौरान उन्हें किसी राजनीतिक चर्चा में भाग नहीं लेने दिया गया, अतः वे पुनः यूरोप लौट गए | विदेश में रहते हुए देश की सेवा करना काफी कठिन था और ब्रिटिश सरकार ने उनसे स्पष्ट कह दिया था कि भारत में वे केवल जेलों में ही रह सकते हैं, फिर भी वो स्वदेश लौटे, इसका परिणाम यह हुआ कि उन्हें पुनः गिरफ्तार कर लिया गया | उनकी गिरफ्तारी से देश भर में क्रांति की लहर फैल गई, पर सरकार टस-से-मस नहीं हुई | इसी बीच उनके बिगड़ते हुए स्वास्थ्य को देखते हुए उन्हें पहले की तरह पुनः रिहा कर दिया गया |
सन 1938 ई. में कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन में वे गांधी जी द्वारा नामजद उम्मीदवार पट्टाभि सीतारमैया के विरुद्ध अध्यक्ष पद का चुनाव जीतने में कामयाब रहे | पट्टाभि सीतारमैया की पराजय को गांधी जी ने अपनी पराजय बताया | सुभाष चन्द्र बोस गांधी जी का बहुत सम्मान करते थे, अतः दक्षिणपंथी कांग्रेसियों के असहयोग को देखते हुए उन्होंने कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया और फॉरवर्ड ब्लॉक नामक नई पार्टी की स्थापना की | बंगाल में उठ रही क्रांति को देखते हुए उन्हें 1941 ई. में फिर गिरफ्तार कर लिया गया और उनके घर पर नजरबंद करते हुए उन पर कड़ा पहरा लगा दिया गया, फिर भी वे यहां से भेष बदलकर भागने में सफल हुए | यहां से भागकर वे काबुल होते हुए जर्मनी पहुंचे | उस समय जर्मनी का तानाशाह हिटलर था, उसने उनका यथेष्ट सम्मान किया और दक्षिण-पूर्वी एशिया जाने की उनकी योजना को समर्थन व सहयोग भी दिया | जून 1943 में सुभाष चन्द्र जापान चले गए, वहां से फिर वे सिंगापुर के लिए रवाना हुए, जहां उसी वर्ष 4 जुलाई को रासबिहारी बोस ने उन्हें आजाद हिन्द फौज का सेनापति बना दिया | 21 अक्टूबर 1943 को अंततः सुभाष चन्द्र बोस ने सिंगापुर में ही आजाद भारत की अस्थाई सरकार की घोषणा कर दी | जापान, इटली, चीन आदि देशों की सरकारों ने उनकी सरकार को मान्यता दी | बाद में उन्होंने बर्मा में रंगून को अपनी अस्थाई सरकार की राजधानी बनाया और अंडमान-निकोबार द्वीप को जीतकर वहां अनुशासित एवं व्यवस्थापूर्ण ढंग से आजाद हिन्द सरकार का कार्य चलाने लगे | ‘दिल्ली चलो’ का नारा देकर उन्होंने अपने सैनिकों का उत्साह बढ़ाया और कोहिमा और मणिपुर के युद्ध में अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए | परंतु, अंत में ब्रिटिश सरकार की वायु सेना के सामने आजाद हिन्द फौज कब तक टिकी रहती, सुभाष चन्द्र बोस को रंगून छोड़ना पड़ा और 19 मई 1945 को अंग्रेजों ने रंगून पर पुनः कब्जा जमा लिया | आजाद हिन्द फौज को इस युद्ध में भले ही हार का सामना करना पड़ा हो, पर ब्रिटिश सरकार के प्रशिक्षित सैनिकों के छक्के छुड़ा देने वाली झांसी रेजीमेंट की वीरांगनाओं के अदम्य साहस, शौर्य और वीरता को कभी भुलाया नहीं जा सकता |
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23 अगस्त 1945 को एक वायुयान दुर्घटना में उनकी मृत्यु के समाचार पर किसी को विश्वास नहीं हुआ | उनके प्रति लोगों के अनन्य दुर्लभ प्रेम की भावना का ही परिणाम था कि बीसवीं सदी के अंत तक भारतवासी यह मानते रहे कि उनके प्रिय नेताजी की मृत्यु नहीं हुई है और आवश्यकता पड़ने पर वे पुनः देश की बागडोर संभालने को कभी भी आ सकते हैं | देश के स्वतन्त्रता संग्राम में सुभाष चन्द्र बोस की भूमिका को देखते हुए, जनवरी 1992 में उन्हें मरणोपरांत देश के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया | नेताजी आज हमारे बीच सशरीर उपस्थित नहीं है, पर देशभक्ति का उनका अमर संदेश आज भी हमें देश के लिए सर्वस्व न्योछावर करने की प्रेरणा देती है |