हेमकुंड साहिब की यात्रा और इतिहास

Gurudwara Hemkund Sahib History In Hindi

सिखों के पवित्र स्थल हेमकुड साहिब जाने के लिए ऋषिकेश – बदरीनाथ मोटर मार्ग पर पांडुकेश्वर से 2 कि.मी. पहले गोबिन्द घाट पर उतरना पड़ता है। गोबिन्द घाट से 20 कि.मी. पैदल मार्ग पर सिखों का पवित्र स्थल हेमकुंड साहिब स्थित है। सिख धर्म ग्रंथों के आधार पर हेमकुंड में गुरु गोबिन्द सिंह जी ने महाकाल की तपस्या की थी। हेमकुंड सुमेरु पर्वत का एक कोना है। इसके पास ही सप्तश्रृंग नामक पर्वत है। यहां पर पांडवों के पिता महाराज पांडु ने तपस्या की थी।

सिख ग्रंथो के इतिहास को पड़कर संत सोहन सिंह जी, जो टिहरी (गदवाल ) में संत वाणी का उपदेश कर रहे थे, के मन में  इस पवित्र स्थान को खोजने की इच्छा हुई। सोहन सिंह जी गुरु जी के प्रति असीम श्रद्धा रखते थे। अत: उन्होंने संकल्प कर लिया कि वे उस स्थान की अवश्य ढूंढ निकालेंगे। इसके लिए सोहन सिंह जी ने कई साधु-संतों से जानकारी प्राप्त करनी शुरू की। इस विषय को लेकर संत जी कई दिन तक इधर-उधर भटकते हुए बदरीनाथ पहुंचे। वहां से लौटते समय वे किसी कारणवश रात्रि में पांडुकेश्वर रुक गए। यहां उन्हें पता चला कि पांडुकेश्वर को राजा पांडु की तप भूमि होने के कारण पांडुकेश्वर कहते हैं। संत जी की आधी गुत्थी सुलझ गयी लेकिन सप्तश्रृंग अभी भी उन्हें नहीं दिखाई दिया। एक दिन सवेरे-सवेरे स्थानीय लोगों का एक समूह नए नए वस्त्र पहनकर कही जाने की तैयारी में था पुछने पर संत जी को पीटीए चला कि ये लोग हेमकुंड  लोकपाल तीर्थ में स्नान करने जा रहे हैं। संत जी भी उनके  पीछे-पीछे हेमकुंड चल दिए।

सन् 1934 ई. तक अलकनंदा  नदी पर कोई पुल नहीं था। लोग उसे एक रस्सी पर झूल कर पार करते थे|  सभी लोगो के साथ संत सोहन सिंह जी  भी  रात्रिं तक घांघरिया पहुंचे और वहां दूसरे दिन हेमकुंड। वहां पहुंचते ही संत जी को सात चोटियों वाला पर्वत सप्तश्रृंग दिखायी दिया, जहां गुरु गोबिन्द सिंह  ने महाकाल की तपस्या की थी।

अब संत  जी उस स्थान की पहचान में लग गए जहां गुरु जी तपस्या में बैठे थे। यह कम  अत्यधिक कठिन था। कहते हैं कि तब संत सोहन सिंह जी ने गुरु जी की (अरदास) प्रार्थना की कि हे प्रभु! आपकी क्रपा से मैं आप की तपोभूमि तक तो आ गया हूं। अब आप मुझे वह स्थान बताएं जहां आप जोत जगाकर शोभा बढ़ाते थे। कहते हैं कि ज्यों ही संत जी ने अरदास पूरी की, कमर तक जटा, नाभि तक दाड़ी  रखे, शेर की खाल पहने एक अवधूत प्रकट हुआ और बोला- खालसा किसे ढूंढते हो संत जी ने कहा कि हे  जोगीश्वर महाराज! मैं अपने गुरु जी का स्थान ढूंढ रहा हूं। जोगीश्वर बोले कि यही वह शिला है जहां गुरुजी बैठते थे। यह  सुनकर संत जी भाव विभोर होकर उस शिला से लिपट गए। उनकी आखों से खुशी की धार बहने लगी। उन्होंने जोगीश्वर की ओर उत्सुकता से देखा लेकिन तब तक वे गायब हो चुके थे।

संत जी ने जोगीश्वर की चरण धूलि सर माथे ली और वापस लौट गए। कुछ दिनों बाद संत जी ने अमृतसर जाकर भाई वीरसिंह सरदार को सारी बात बताई। भाई जी यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और संत जी से कहा कि वहां जाकर गुरु ग्रंथ का प्रकाश कर दो । इस प्रकार 1936 ई. में वहां एक छोटा सा गुरुद्वारा बनकर तैयार हो गया।

सन् 1937 ई. के शुरू में वहां गुरु ग्रंथ साहिब का पहला प्रकाश (पूजा) हुआ। हेमकुंड अत्यधिक ऊंचाई वाले तीर्थों में से है। इसकी ऊंचाई 4329 मीटर है। हेमकुंड में ठहरने की आज भी कोई व्यवस्था नहीं है। श्रद्धालु शाम तक वापस घांघरिया आ जाते हैं। घांघरिया, भ्यूडार व पुलना चट्टी में यात्रियों की जरूरी सामान उपलब्ध हो जाता है । प्रत्येक वर्ष पहली जून को हेमकुंड साहिब के पट खुलते हैं। तब सैकड़ों-हजारों सिख हेमकुंड साहिब पहुंचते हैं। सिख धर्म में यह पवित्र तीर्थ माना गया है। सिख लोग गुरु का संकल्प लेकर घरों से जलसों के रूप में यात्रा के लिए निकलते हैं।

पूरी यात्रा का मार्ग ‘जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल’ से गूंज उठता है। सप्तश्रृंग के दर्शन होते ही श्रद्धालु मत्था टेककर अपने गुरु की श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। हेमकुंड पहुंचकर सर्वप्रथम सरोवर में स्नान किया जाता है। उसके बाद गुरुद्वारे में पवित्र गुरु ग्रंथ साहिब पर चढ़ावा चढ़ता है और गुरु की अरदास की जाती है।