
के. वी. सुब्बान्ना का जीवन परिचय (KV Subbanna Biography In Hindi Language)
नाम : के.वी. सुब्बान्ना
पिता का नाम : रामाप्पा
माता का नाम : सावित्रम्मा
जन्म : 24 जनवरी 1932
जन्मस्थान : हेग्गुडो, मैसूर (कर्नाटक)
उपलब्धियां : पद्मश्री (2004), रमन मैग्सेसे (1991)
हाल के वर्षों में एशिया के सम्पन्न शहरी लोगों में ग्रामीण कला तथा हस्तशिल्प की ललक बढ़ती देखी गई है । वह अपनी कलात्मकता का प्रदर्शन शहरी घरों में गाँवों की झलक दिखाकर करते हैं । इसी तरह आवश्यक सुधार के बाद लोकगीत, लोक नृत्य तथा लोक शैली की कलाएँ तथा नाट्य रूप दूरदर्शन के माध्यम से शहरों में जगह बना रहे हैं | यह अच्छी बात है, लेकिन चिन्ता की बात यह है कि शहरों में विकसित होने वाले और प्रदर्शित होने वाले कला रूपों की झलक गाँवों तक नहीं पहुँच पा रही है और ग्रामीण लोग उससे वंचित हैं । के.वी. सुब्बान्ना ने इस तथ्य को देखा और उन्हें एहसास हुआ कि नाटक फिल्म तथा संगीत की प्रस्तुतियों में गाँव वालों की भी हिस्सेदारी बननी चाहिए | उन्होने अपने अथक प्रयास तथा सूझबूझ से नीनासाम थियेटर इन्टीट्यूट की नींव रखी और कर्नाटक के ग्रामीण इलाकों में विश्व स्तर के नाटक तथा फिल्म उनकी ही भाषा में उपलब्ध कराई, जिसके लिए उन्हें वर्ष 1991 का मैग्सेसे पुरस्कार दिया गया ।
के. वी. सुब्बान्ना का जीवन परिचय (KV Subbanna Biography In Hindi)
के.वी. सुब्बान्ना का जन्म 24 जनवरी 1932 को मैसूर (अब के कर्नाटक) के पश्चिमी घाट में हेग्गुडो गाँव में हुआ था । वहाँ की भाषा कन्नड़ थी और वहाँ के लोग नारियल तथा सुपारी की खेती करते थे । के.वी. सुब्बान्ना के पिता रामाप्पा तथा माँ सावित्रम्मा सम्पन्न परिवार के लोग थे । इनके घर में धान की खेती होती थी ।
सुब्बान्ना की शुरूआती पढ़ाई घर पर ही हुई उनके पिता ने प्राइमरी स्कूल की किताब उन्हें लाकर दे दी कि वह घर पर ही पढ़ें । इसके बावजूद जागरूकता उनके परिवार में पर्याप्त थी तथा सब लोग स्वतन्त्रता आन्दोलन की हलचल से अछूते नहीं थे ।
सुब्बान्ना की विधिवत पढ़ाई 1943 से शुरू हुई । उनके गाँव से दस किलो मीटर दूर सागर कस्बे में सरकारी मिडिल तथा हाईस्कूल था । इन्होंने वहाँ पढ़ना शुरू किया । वहाँ पर हालाँकि शिक्षा का माध्यम कन्नड़ था, लेकिन सुब्बान्ना ने अंग्रेजी भी पढ़ी, जिससे इन्हें बहुत-सा पाश्चात्य साहित्य पढ़ने का शौक पैदा हुआ । इस अभिरुचि के बावजूद सुखाना साइंस तथा गणित के छात्र थे । सागर में रहते हुए वह स्कूल तथा बाहर सब जगह नाटकों में हिस्सा लेते थे और देखने का मौका नहीं चूकते थे ।
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‘यक्षगान’ प्रारूप की नाट्य प्रस्तुतियाँ सुखाना बचपन से देखते आए थे । उनमें रामायण, महाभारत से पौराणिक प्रसंग संस्कृत में गेम बनाकर मंचित किए जाते थे । इसके अतिरिक्त सागर में प्रतिवर्ष एक महीना चलने वाला नाट्य महोत्सव आयोजित होता था, जिसमें यक्षगान के अतिरिक्त पारसी थियेटर वाले रंगबिरंगे परिधानों में नई कहानियाँ मंचित करते थे । शेक्सपीयर के नाटक, अरेबियन नाइट्स. ..वगैरह सुब्बान्ना इन्हें देखकर बहुत रोमांचित होते थे ।
हाईस्कूल पास करने के बाद सुखाना घर लौटे । तब तक देश आजाद हो चुका था । सुखाना नए परिवेश में उत्साह से भरे हुए थे, उनमें एक अजीब-सी बेचैनी थी कि कुछ किया जाए । इन्होंने अपने कुछ युवा साथियों को लेकर एक उजाड़ सी जगह में हेग्गुडू में अपना अड्डा बनाया और एक अखबार शुरू कर दिया । अखबार का नाम था ‘अशोका वीकली’ या इस साप्ताहिक की 500 प्रतियाँ साइक्लोस्टाइल होकर वितरित होती थीं, जिसमें स्थानीय खबरें दी जाती थीं । इस ग्रुप ने अखबार के साथ एक नाट्य संस्था भी शुरू करने की सोची । बहुत पहले कभी वहाँ एक ग्रुप हुआ करता था जो यक्षगान करता था, लेकिन बरसों से वह ठप्प पड़ा था । सुब्बान्ना ने फिर से उस क्लब को स्थापित करने की योजना बनाई और सोचा कि उसमें नए तथा पुराने दोनों तरह के नाटक किए जाएँगे । इन बच्चों ने अपने-अपने घरों में बात की । सुब्बान्ना के पिता इस नवगठित नाट्य संघ के पहले अध्यक्ष बनाए गए और इसका नाम उस क्षेत्र के
देवता के नाम पर रखा गया, ‘निकंटेश्वरा नाट्य सेवा संघ’ जिसे संक्षेप में नीनासाम कहा जाने लगा ।
लोकप्रियता की दृष्टि से नीनासाम में शुरू में प्रचलित ऐतिहासिक नाटक ही किए गए, जिसमें नाटकीयता से भरपूर रंगबिरंगे परिधानों में संगीतमय प्रस्तुतियाँ की जाती थीं ।
उसके बाद वह यूनिवर्सिटी में पढ़ने मैसूर चले गए । अपने परिवार के इस स्तर तक पहुँचने वाले वह पहले व्यक्ति थे । यूनिवर्सिटी में वह साइंस के छात्र थे लेकिन उनका दृष्टिकोण दार्शनिक था । मतलब कि वह विज्ञान की स्थूल रूपता से आगे भी जाकर सोचते थे तथा उनका गहरा रुझान साहित्य की ओर था । उनका कहना था- ”थियेटर मेरे लिए बस थियेटर भर नहीं है, साहित्य भी मेरे लिए बस साहित्य तक ही सीमित नहीं है, इसी तरह मेरे लिए साइंस भी सिर्फ पाठ्यक्रम तक नहीं जाती, मैं इन सबको एक समूचेपन में अपनाते हुए एक विशाल भारत का निर्माण करना चाहता हूँ ।”
अपनी इस अवधारणा के साथ सुखाना यूनिवर्सिटी में साहित्यिक अभिरुचि वाले साथियों के साथ मिलकर पढ़ाई में डूब गए । इसके बावजूद थियेटर उनका जुनून था ।
मैसूर यूनिवर्सिटी में कन्नड़ साहित्य का बहुत सम्पन्न परिवेश था क्योंकि बड़े रचनाकार तथा पुरस्कार विजेता कवि के.वी. पुट्टापा वहाँ के साहित्य विभाग में आचार्य थे । उनकी देख-रेख में सुब्बान्ना ने साहित्य की गहराई से समझ हासिल की । इन्होंने साहित्य तथा संस्कृति के आपसी रिश्तों को संस्कृत, इसलामिक-उर्दू तथा लोक प्रभावों के आधार पर बारीकी से पकड़ा । वह इस सबका सम्बन्ध थेयेटर से भी जोड़ पाए और इतना उत्साहित हुए कि उन्होंने यूनिवर्सिटी के मित्रों के साथ मिलकर एक ड्रामा क्लब बना डाला, जिसने प्रतिवर्ष तीन-चार नई प्रस्तुतियां दीं, जिसमें हेनरिक इब्सन तथा जार्ज बर्नाड शॉ के नाटक मंचित हुए ।
यूनिवर्सिटी से लौटकर सुब्बान्ना फिर 1954 में अपने गाँव आए । और उनके साथियों ने मिलकर उनकी नाट्य संस्था को फिर जिन्दा कर दिया । इस बार सुब्बान्ना ने उसी तरह के आधुनिक नाटक देने का प्रयास किया, जिन्हें उन्होंने मैसूर यूनिवर्सिटी में मंचित किया था । उनका यह अनुभव निराशाजनक रहा । गाँव की जनता अभी भी वही पुराने, पौराणिक विषयों के, रंग-बिरंगी पोशाक में नाटकीयता से भरे संगीत रूपक देखने की आदी थी । उस जनता को नए थियेटर में रस नहीं मिला । इस पर सुब्बान्ना ने हार नहीं मानी और नया प्रयोग किया । नए दौर के नाटकों को, उनके विषय को सुब्बान्ना ने उसी शिल्प में रूपांतरित किया जो गाँव वालों को पसन्द आता था, और इस तरह उनकी रुचि को देखते हुए उनमें नए विषयों की जगह बनाई ।
जब सुब्बान्ना यूनिवर्सिटी में ही थे, तब 1952 में नेहरूजी के प्रयास से देश में पहला अन्तरराष्ट्रीय फिल्म समारोह आयोजित हुआ । उनमें तीन फिल्में मैसूर भी पहुँची, ‘द बाइसिकल थीफ’, ‘बिटर राइस’ और ‘राशोमॉन’ । इन्हें देखकर सुब्बान्ना बेहद प्रभावित हुए और इन्हें इस माध्यम की ताकत का एहसास हुआ । 1955 में जब सत्यजित राय की फिल्म ‘पथेर पाँचाली’ आई, तब सुब्बान्ना ने व्यवस्था की, कि उसे सागर में दिखाया जाए और वह ‘नीनासाम’ के अपने मित्रों को वह फिल्म दिखाने लाए । उन दिनों उनके गाँव हेग्गुडू में प्रोजेक्टर की सुविधा नहीं पहुँची थी ।
वर्ष 1963 में सुब्बान्ना तथा उनके साथियों ने मिलकर सागर में एक कॉलेज की स्थापना कराई थी, जिसका नाम था, लालबहादुर कॉलेज । इस कॉलेज में सुब्बान्ना चार वर्षों तक काम करते रहे थे । इसी दौरान इन्होंने उस कॉलेज में आर्ट फिल्में दिखाने के लिए एक क्लब भी बनाया था । 1967 में यूनेस्को ने भारत में एक ‘फिल्म एप्रिसियेशन कोर्स’ पूना में आयोजित किया था, सुब्बान्ना ने वह कोर्स पढ़ा और इस कोर्स के छह हफ्तों के दौरान इन्होंने दुनिया-भर के बड़े मास्टर्स की बहुत सी फिल्में देखीं ।
1967 में सुब्बान्ना फिर पूरी तरह अपने ‘नीनासाम’ के लिए काम करने को लौटे । उन्होंने इसके पूरी तरह से विस्तार के लिए काम करना शुरू किया । बच्चों की रुचि के नाटक इससे जोड़े गए । इस बीच इसकी प्रगति के साथ इसमें कुछ महिला कलाकारों ने भी हिस्सेदारी शुरू की जिससे नीनासाम की प्रतिष्ठा और बड़ी । वर्ष 1971 में सुब्बान्ना के मन में नीनासाम के लिए बाकायदा एक थियेटर बनाने का विचार आया । उन्होंने कर्नाटक के वित्तमन्त्री से चर्चा की । रामकृष्ण हेगड़े उन दिनों वित्तमन्त्री थे । वह इस शर्त पर तैयार हो गए कि इसको बनाने का आधा खर्च दिया जा सकेगा । इतना पर्याप्त था । 1972 में हेग्गुडू में एक पक्का थियेटर बनकर तैयार हो गया । जिसका नाम शिवराम कारंत रंग मन्दिर रखा गया । इस थियेटर के बन जाने से नाटकों के अतिरिक्त फिल्म दिखाने की भी सुविधा सुब्बान्ना को मिल गई और उन्होंने गाँव में नए तरीके का थियेटर तथा फिल्में दिखाना शुरू कर दिया ।
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सुब्बान्ना ने विदेशी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के नाटकों को कन्नड़ में दोबारा प्रस्तुत करके हिग्गुडू के लोगों को दिखाना शुरू किया । उन्होंने बहुत से नाटकों को अनूदित भी किया और उन्हें अपनी प्रेस में छापा ।
सुब्बान्ना ने गाँव के युवक-युवतियों को थियेटर के लिए प्रशिक्षित भी करना शुरू किया और इसके लिए उन्होंने 1980 में नीनासाम थियेटर इन्टीट्यूट स्थापित किया ।
1983 में नीनासाम को एक और नया आयाम मिला, फोर्ड फाउन्डेशन के साथ मिलकर उनकी एक नई धारा ‘जनस्पंदन’ शुरू हुई । यह दो वर्ष का प्रोजेक्ट था जिसका मुख्य उद्देश्य अधिक-से-अधिक लोगों को थियेटर संस्कृति से जोड़कर उन्हें समृद्ध करना था ।
3 मार्च 1956 को सुब्बान्ना का विवाह शैलजा से हुआ और तीन वर्ष के बाद वह एक पुत्र के पिता बने जिसका नाम उन लोगों ने अक्षर रखा । इस पुत्र के नाम पर 1958 में इन्होंने अपना प्रकाशन भी शुरू किया ।
वर्ष 2004 में के.वी. सुब्बान्ना को भारत सरकार की ओर से पद्मश्री की उपाधि दी गई । इनके अद्भुत कार्य के लिए इन्हें संगीत नाटक अकादमी ने भी 1994 में पुरस्कृत किया ।
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