
लक्ष्मीचन्द जैन का जीवन परिचय (Lakshmi Chand Jain Biography In Hindi Language)
नाम : लक्ष्मीचन्द जैन
पिता का नाम : फूलचन्द जैन
माता का नाम : चमेली देवी
जन्म : 13 दिसम्बर 1925
जन्मस्थान : दिल्ली
उपलब्धियां : रमन मैग्सेसे (1989)
बहुत से विकासशील देशों की सरकारें अपने देशों में विविध जन समुदायों की बहुसंख्यक भाषा और संस्कृति के बीच से उन्नति की राह बनाने में लगी हुईं है । ऐसे में अधिकतर ऐसा होता देखा जा रहा है कि आर्थिक विकास का लाभ गरीब जरूरतमन्द लोगों तक न पहुँच कर उन्हीं लोगों तक पहुँच रहा है, जो नौकरशाह हैं तथा पहले से ही समृद्ध स्थिति में हैं । इस सच्चाई को समझकर लक्ष्मीचन्द जैन ने यह विचार सामने रखा कि गरीब, जरूरतमन्द लोगों के हित में प्रबन्ध मशीन आधारित अर्थव्यवस्था के बजाय श्रम आधारित अर्थ व्यवस्था से ही आ सकता है | उन्होने सुझाया कि इस दिशा में गाँवों में लोकतान्त्रिक सगंठन तथा स्वयंसेवी, स्वैच्छिक इकाइयाँ बेहतर नतीजे ला सकती हैं । लक्ष्मीचन्द जैन ने स्वयं को इस सिद्धान्त के आधार पर निस्वार्थ प्रतिबद्धता के साथ एकदम गरीब सर्वहारा के लिए काम में लगाया | लक्ष्मीचन्द जैन के इस सूझबूझ भरे काम के लिए उन्हें 1989 का मैग्सेसे पुरस्कार प्रदान किया गया ।
लक्ष्मीचन्द जैन का जीवन परिचय (Lakshmi Chand Jain Biography In Hindi)
लक्ष्मीचन्द जैन का जन्म 13 दिसम्बर 1925 को दिल्ली में हुआ था । वह अपने पिता की चार सन्तानों में सबसे बडे थे । उनके पिता फूलचन्द जैन तथा माँ चमेली देवी दोनों ही सक्रिय स्वतन्त्रता सेनानी थे तथा उन्हीं के जरिये लक्ष्मीचन्द जैन ने भी यह संस्कार पाया था । राष्ट्रीय भावनाओं की बुनियाद को लेकर उनकी कुछ स्मृतियाँ तथा संस्मरण रोचक हैं । एक बार बेहद किटकिटाती सर्दी में एकदम सुबह लक्ष्मीचन्द के पिता उन्हें गाँधी जी की जनसभा में ले गए । इस पर गाँधी जी ने उनके पिता को डाँट लगाई कि वह ऐसे मौसम में छोटे बालक को क्यों लेकर आए…उसके बाद लक्ष्मीचन्द को गाँधी जी ने स्वयं शाल औढाया और मेवे खाने को दिए । इसी तरह एक बार लक्ष्मीचन्द पण्डित नेहरू का भाषण सुनने ले जाए गए और भीड़ में गुम हो गए । पण्डित नेहरू ने स्वयं उन्हें खोजकर गोद में उठाया और उनके पिता को सौंपा ।
लक्षीचन्द जैन की शिक्षा 1929 में शुरू हुई । उन्होंने जैन संस्थापित प्राइमरी तथा सेकेंडरी स्कूलों में, दिल्ली में ही पढ़ाई की । वह एक प्रतिभाशाली छात्र थे तथा क्लास के हेडब्वाय बनाए गए थे । 1939 में लक्ष्मीचन्द ने दिल्ली यूनिवर्सिटी के हिन्दू कॉलेज में प्रवेश लिया । शुरू में उन्होंने मेडिकल विषयों से पढ़ाई शुरू की लेकिन दो साल बाद वह इतिहास तथा दर्शनशास्त्र पढ़ने लगे । व्यावहारिक अर्थशास्त्र पर इनकी जबरदस्त पकड़ थी जिसका उन्होंने जीवन में बहुत उपयोग किया । इस विषय पर उन्होंने 1955 में हावर्ड यूनिवर्सिटी से एक ग्रीष्म कालीन पाठ्यक्रम भी लिया । इसके अलावा उनकी बहुत सी अनौपचारिक शिक्षा उनकी ऑक्सफोर्ड से पढ़ी पत्नी देवकी के जरिये हुई ।
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लक्ष्मीचन्द की यूनिवर्सिटी की पढ़ाई बहुत से कारणों से अधबीच में छूट गई । उसमें मुख्य कारण दूसरे विश्वयुद्ध का छिड़ जाना था । भारतीय नेताओं ने ब्रिटिश सरकार से उनको दिए इस युद्ध में सहयोग के बदले स्वाधीनता की माँग की जो ब्रिटिश सरकार ने स्वीकार नहीं की । इस पर अगस्त 1942 में गाँधी जी ने अंग्रेजों पर ‘भारत छोड़ो’ का दबाव बनाया । लक्ष्मीचन्द जैन के पिता दूसरे नेताओं के साथ गिरफ्तार हो गए । तब लक्ष्मीचन्द जैन राष्ट्रवादी छात्रों के साथ अंग्रेजों के खिलाफ संग्राम में कूद पड़े । वह सन्तोष के छद्म नाम से भूमिगत हो कर काम करने लगे । उनकी विद्रोही गतिविधियों में विचारोत्तेजक साहित्य लिखना, छापना तथा उसका वितरण करना तो था ही, वह टेलीफोन के तार काटना, तथा देसी बम बनाने जैसी कार्यवाही में भी लगे हुए थे । वह अलग-अलग भूमिगत ठिकानों के बीच सन्देशवाहक का काम भी करते थे ।
इन्हीं कार्यवाहियों के बीच लक्ष्मीचंद जैन तथा उनके दूसरे साथियों के बीच यह विचार भी चल रहा था कि अंग्रेजों के भारत छोड़ने के बाद भारत के समाज का स्वरूप क्या होगा | इसके लिए उन्होंने ‘परिवर्तनकारी’ ग्रुप का गठन किया था । इस गुप के पास बहुत से विचार थे । उन्हें मार्क्सवाद की सफलता और खामियों दोनों का पता था । उन पर गाँधीवाद का भी प्रभाव था ।
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद लक्ष्मीचन्द जैन ने अपना ग्रेजुएशन पूरा कर लिया था और इतिहास में मास्टर्स डिग्री की तैयारी कर रहे थे । इसी साल उन्हें दिल्ली कांग्रेस पार्टी की स्टूडेंट ब्रांच का उपाध्यक्ष बना दिया गया । उसी दौरान भारत में एशिया रिलेशन्स कांफ्रेंस का आयोजन हुआ जिसमें लक्ष्मीचंद जैन ने सक्रिय व्यवस्थात्मक भूमिका निभाई और उनको बहुत से नेताओं से मिलने तथा उनको सुनने का मौका मिला ।
आजादी के तुरन्त बाद इसके पहले कि लक्ष्मीचन्द किसी सार्थक योजना में जुट पाते विभाजन की त्रासदी सामने आई और वे हडसन लाइन के रिफ्यूजी कैम्प के प्रमुख व्यवस्थापक बन कर विस्थातियों की देखरेख में लग गए, लेकिन उनके दिमाग से भविष्य के काम का खाका मिटा नहीं । वे स्वतन्त्र रूप से काम कर रहे थे लेकिन कोई भी काम उठाने के पहले वे खुद से पूछते, ‘यहाँ गाँधी जी होते तो क्या करते…’ और उसके उत्तर में उन्हें जो स्वयं सूझता, वह उसे करने लगते । जल्दी ही उन्होंने अच्छे वेतन पर युवा सिविल इंजीनियरों को नियुक्त करके उन्हें पुनर्वास का काम सौंपा और खुद लोगों को रोजगार तथा ट्रेनिंग दिलाने के काम में लग गए ।
1947 के अन्तिम दिनों में लक्ष्मीचन्द जैन की भेंट एक कैम्प में कमला देवी चट्टोपाध्याय से हुई । वहाँ एक शरणार्थी के प्रश्न ने उन लोगों को चौंका दिया । उनसे उस शरणार्थी ने पूछा, ‘हमारा भविष्य क्या है…?’ लक्ष्मीचन्द जैन ने उस पल यह एहसास किया कि यह प्रश्न तो उनके दिमाग में कभी नहीं आया था, तभी लक्ष्मीचन्द तथा कमला देवी ने मिलकर विचार-विमर्श शुरू किया कि इन शरणार्थियों को इन रिक्यूजी कैम्पों से बाहर सामान्य जीवन जीने की राह कैसे दिखाई जा सकती है?
1948 में जैन ने कमला देवी के साथ एक इण्डियन को-आपरेटिव यूनियन की स्थापना की और इस संस्था ने कुछ शरणार्थियों को दिल्ली से कुछ दूर छतरपुर गाँव में एक खुली जमीन पर ला बैठाया कि वह यहाँ पर खेती शुरू करें । इस प्रोजेक्ट को हाथ में लेकर जैन ने हडसन लाइन का रिफ्यूजी कैम्प दूसरों के हवाले किया और छतरपुर आ गए कि वहाँ इन लोगों को खेती के लिए, खाद, बीज तथा अन्य सहायता व सुविधा प्रदान की जा सके ।
इस प्रक्रिया में पण्डित नेहरू ने भी बहुत सक्रियता दिखाई । जैन तथा कमला देवी की इण्डियन को-आपरेटिव यूनियन को सरकार ने नई दिल्ली के कुटीर उद्योग संस्थान यानी कॉटेज इन्डस्ट्रीज इम्पोरियम में बदल दिया । जैन तथा कमला देवी ने इस इम्पोरियम को हस्तशिल्प को प्रोत्साहित करने का केन्द्र बना दिया । शरणार्थियों को हाथ के काम का कौशल दिया जाने लगा । जैन ने इसके बने सामान को ‘सोशल मार्केटिंग’ के जरिये बाजार में रखा तथा इस बात की खबर रखते रहे कि कौन सा सामान क्यों बिक रहा है । या क्यों नहीं बिक रहा है । उनकी इस निगरानी के आधार पर इम्पोरियम की कार्यवाही नियन्त्रित होने लगी । कारीगर सामान को उसी दृष्टि से बनाने, सुधारने लगे । जैन के पुराने सहयोगी राजकृष्ण ने 1953-54 में एक सर्वे में पता लगाया कि भारत के हस्तशिल्प के सामान का निर्यात करीब-करीब साठ लाख अमरीकी डालर सालाना का है । बाद में तो यह निर्यात उत्तरोत्तर बढ़ता ही चला गया ।
लक्ष्मीचन्द जैन तथा कमला देवी चट्टोपाध्याय के सहयोग से चलने वाले इस कॉटेज इम्पोरियम ने बीच में एक नाटकीय घटनाक्रम भी देखा ।
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उन दिनों जयप्रकाश नारायण और विनोबा भावे प्लान यज्ञ में लगे हुए थे । यह वर्ष 1954 की बात है । तभी इनकी मुलाकात लक्ष्मीचंद जैन से हुई और वहाँ यह सवाल इनके सामने आया कि इस भूदान यज्ञ में जुटाई गई जमीन का भूमिहीनों के बीच वितरण किस तरह किया जाएगा । लक्ष्मीचन्द को यह प्रश्न चुनौती पूर्ण लगा और वह इसी में उलझ गए । लम्बे समय तक वह इस पर काम करते रहे और उसके बाद इन्होंने कमला देवी को यह सूचना भी दी कि वह अब विनोबा के साथ काम करने जाना चाहते हैं । कमला देवी ने चुपचाप इम्पोरियम की चाबियाँ लेकर एक सहयोगी को पकड़ा दी और कहा :
”इम्पोरियम में ताला लगा दो । आज से इम्पोरियम बन्द । लक्ष्मीचन्द जाना चाहते हैं और इनके बिना इम्पोरियम नहीं चलाया जाएगा ।”
कुछ पल लक्ष्मीचन्द जैन हतप्रभ खड़े रहे और फिर उनका निर्णय बदल गया । वह वहीं बने रहे और इम्पोरियम चलता रहा ।
1968 में लक्ष्मीचन्द जैन ने एक कंसल्टिंग फर्म भी खड़ी की, जो किसानों तथा कारीगरों की सलाह पर सरकारी तथा गैर सरकारी काम काज में मदद करने लगी । इस तरह से लक्ष्मीचन्द जैन ने किसानों, कारीगरों, तथा स्त्रियों के समूह तथा सरकारी कमेटियों और बोर्ड के बीच एक सेतु की भूमिका अदा की और इसका लाभ दोनों को मिला ।
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