मेजर ध्यानचन्द पर निबंध Major Dhyan Chand Essay In Hindi

मेजर ध्यानचन्द पर निबंध Major Dhyan Chand Essay In Hindi Language

Major Dhyan Chand Essay In Hindi

एक ऐसे व्यक्ति का यदि नाम पूछा जाए जिसने हॉकी के खेल में अपने करिश्माई प्रदर्शन से पूरी दुनिया को अचंभित कर खेलों के इतिहास में अपना नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित करवा लिया हो, तो जवाब के रूप में केवल एक नाम मेजर ध्यानचन्द ही होगा | हॉकी के मैदान पर जब वे खेलने उतरते थे, तब एक ऐसा मायावी इन्द्रजाल बुनते थे कि विरोधी टीम की हार सुनिश्चित लगने लगती थी | उनके बारे में कहा जाता है कि वे किसी भी कोण से गोल कर सकते थे | यही कारण है कि सेंटर फारवर्ड के रूप में उनकी तेजी और जबरदस्त फुर्ती को देखते हुए उनके जीवनकाल में ही उन्हें ‘हॉकी का जादूगर’ कहा जाने लगा था |

हॉकी के ऐसे प्रतिभाशाली खिलाड़ी ध्यानचन्द का जन्म 29 अगस्त 1950 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद शहर में हुआ था | उनके पिता सोमेश्वर दत्त सिंह मूल रूप से पंजाब के निवासी थे और उस समय ब्रिटिश इंडियन आर्मी में सूबेदार के पद पर इलाहाबाद में तैनात थे | कुछ दिनों बाद उनका स्थानांतरण झांसी में हो गया, इसलिए ध्यानचन्द भी अपने पिता के साथ वहीं रहने चले आए | इनकी प्रारंभिक शिक्षा भी झांसी में ही हुई थी | अपने पिता के स्थानान्तारणों से पढ़ाई के बाधित होने और हॉकी के प्रति अपनी दीवानगी के कारण ये केवल छठी कक्षा तक ही पढ़ाई कर सके | इनके बचपन का नाम ध्यान सिंह था |

वे बचपन में अपने मित्रों के साथ पेड़ की डाली से स्टिक और खराब कपड़ों की गेंद बनाकर हॉकी खेला करते थे | एक बार की बात है वे अपने पिता के साथ एक हॉकी मैच देख रहे थे | इसमें एक पक्ष के खिलाफ विरोधी पक्ष ने लगातार कई गोल किए | कमजोर पक्ष की स्थिति देखकर ध्यानचन्द ने अपने पिता से कहा कि यदि वे इस पक्ष की तरफ से खेलें तो परिणाम कुछ और ही होगा | वहीं पास में खड़ा आर्मी का एक ऑफिसर उनकी बात को सुन रहा था | उसने ध्यानचन्द को कमजोर पक्ष की ओर से खेलने दिया और थोड़ी ही देर में विरोधी टीम के खिलाफ लगातार चार गोल कर इन्होंने अपनी अद्भुत प्रतिभा का परिचय दे दिया | उस समय उनकी आयु मात्र 14 वर्ष की थी | उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर कुछ समय बाद आर्मी के उस ऑफिसर ने उन्हें मात्र 16 वर्ष की आयु में इंडियन आर्मी में भर्ती कर लिया | इसके बाद हॉकी से उनका साथ किसी न किसी रूप में जीवनपर्यन्त रहा | आर्मी में शामिल होने के बाद उनके ब्राह्मण रेजीमेंट के कोच भोले तिवारी इनके पहले कोच बने | कहा जाता है कि आर्मी में सिपाही के तौर पर कार्य करने के कारण उनके पास हॉकी खेलने के लिए वक्त नहीं होता था, इसलिए रात को जब उनके सभी साथी बैरक में सो जाते थे, तब ध्यानचन्द चांद की रोशनी में हॉकी की प्रैक्टिस किया करते थे | इससे हॉकी के प्रति उनकी दीवानगी का पता चलता है |

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आर्मी में शामिल होने के साथ ही उनके हॉकी खिलाड़ी के रूप में कैरियर की शुरुआत तब हुई, जब 21 वर्ष की आयु में उन्हें न्यूजीलैंड जानेवाली भारतीय टीम में चुन लिया गया | इस दौरे में भारतीय सेना की टीम ने 21 में से 18 मैच जीते थे | 23 वर्ष की उम्र में ध्यानचन्द 1928 के एम्सटर्डम ओलंपिक में पहली बार भाग ले रही भारतीय हॉकी टीम के सदस्य चुने गए | यहां चार मैचों में भारतीय टीम ने 23 गोल किए और अंत में स्वर्ण पदक जीतने में कामयाब रहे | सन 1932 में लॉस एंजेल्स ओलंपिक में भारत ने अमेरिका को 24-1 के रिकॉर्ड अंतर से हराया | इस मैच में ध्यानचन्द एंव उनके बड़े भाई रुप सिंह ने 8-8 गोल किए थे | इस ओलंपिक में भी भारतीय टीम को स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ | 1936 के बर्लिन ओलंपिक में ध्यानचन्द भारतीय हॉकी ओलंपिक टीम के कप्तान थे | 15 अगस्त 1936 को हुए फाइनल मैच में भारत ने जर्मनी को 8-1 से हराकर स्वर्ण पदक पर कब्जा किया | इस मैच को जर्मनी का तत्कालीन तानाशाह हिटलर भी देख रहा था | कहा जाता है कि मैच खत्म होने के बाद स्वंय उसने ध्यानचन्द से मुलाक़ात कर उनके खेल की तारीफ की थी | 1932 ई. में भारतीय हॉकी टीम ने वर्ष भर में कुल 37 मैच खेलकर 338 गोल बनाए थे और इनमें से 133 गोल ध्यानचन्द ने किए थे | उनके भारतीय हॉकी टीम के सदस्य रहते हुए टीम ने विभिन्न ओलंपिक खेलों में कुल 28 गोल किए थे इनमें से 11 गोल ध्यानचन्द के नाम दर्ज हैं | ओलंपिक और उसके क्वालिफाई मैचों में 101 गोल करने और अन्य इंटरनेशनल मैचों में 300 गोल करने का रिकॉर्ड भी उन्हीं के खाते में हैं | उन्होंने अपने हॉकी-जीवन में जितने गोल किए उतने हॉकी के खिलाड़ी अपने पूरे जीवन में नहीं कर पाते | उनके करिश्मा खेल का ही नतीजा था कि हालैण्ड में एक मैच के दौरान उनकी स्टिक को तोड़कर देखा गया कि कहीं उसमें चुम्बक तो नहीं लगा है | जापान में उनकी हॉकी स्टिक का सच जानने के लिए परीक्षण किया गया था कि कहीं उसमें गोंद का प्रयोग तो नहीं हुआ है | उनके प्रदर्शन के दम पर ही भारतीय हॉकी टीम ने तीन बार 1928 ई. के एम्सटर्डम ओलंपिक, 1932 ई. के लॉस एंजेल्स ओलंपिक एंव 1936 ई. के बर्लिन ओलंपिक में स्वर्ण पदक प्राप्त किया | यह भारतीय हॉकी को उनका सबसे बड़ा योगदान है | 1948 ई. में 43 वर्ष की उम्र में उन्होंने हॉकी को अलविदा कह दिया |

ध्यानचन्द की उपलब्धियों को देखते हुए उन्हें विभिन्न पुरस्कारों एंव सम्मानों से विभूषित किया गया | 1956 ई. में 51 वर्ष की उम्र में जब वे भारतीय सेना के मेजर पद से सेवानिवृत्त हुए तो उसी वर्ष भारत सरकार ने उन्हें ‘पदमभूषण’ से अलंकृत किया | उनके जन्मदिन 29 अगस्त को ‘राष्ट्रीय खेल दिवस’ के रूप में मनाने की घोषणा हुई | खेलों से संबंधित अर्जुन पुरस्कार, राजीव गांधी खेल रत्न अवॉर्ड और गुरु द्रोणाचार्य अवार्ड हर वर्ष दिन प्रदान किए जाते हैं | उनको सम्मानित करने के लिए वियना के एक स्पोर्ट्स क्लब में उनकी एक मूर्ति लगाई गई है, जिसमें उनको चार हाथों में चार स्टिक पकड़े हुए दिखाया गया है | नई दिल्ली में एक स्टेडियम का नाम उनके नाम पर मेजर ध्यानचन्द स्टेडियम रखा गया है एवं भारतीय ओलंपिक संघ ने उन्हें शताब्दी का खिलाड़ी घोषित किया है |

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1979 में जब ध्यानचन्द बीमार हुए तो उन्हें दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती करवाया गया | उन्हें बचाने के सारे प्रयास विफल रहे और 3 दिसंबर 1979 को उनका देहांत हो गया | झांसी में उनका अंतिम संस्कार किसी घाट पर न कर उस मैदान पर किया गया, जहां वे हॉकी खेला करते थे | अपने जीवन काल में अभूतपूर्व उपलब्धियां हासिल करने के बाद भी इस महान व्यक्तित्व ने अपनी आत्मकथा ‘गोल’ में लिखा है, “आपको मालूम होना चाहिए कि मैं बहुत साधारण आदमी हूं |” हॉकी ही नहीं खेलों के इतिहास में भी ध्यानचन्द का नाम हमेशा अमर रहेगा |

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