
प्रमोद करन सेठी का जीवन परिचय (Pramod Karan Sethi Ki Biography In Hindi Language)
नाम : प्रमोद करन सेठी
पिता का नाम : निहाल करन सेठी
जन्म : 28 नवम्बर 1927
जन्मस्थान : बनारस
मृत्यु : 6 जनवरी 2008
उपलब्धियां : गिनीज अवार्ड फॉर साइंटिफिक अचीवमेंट (1982), मैग्सेसे (1981), ‘पद्मश्री’ (1981), डी.एस.सी. मानद उपाधि (1982), आर.डी.बिड़ला अवार्ड (1983) |
हमारे देश में अंगभंग होने के कारण विकलांगता एक बड़ी समस्या रही है । सड़क कारखानों तथा दूसरे कामों के दौरान हुई दुर्घटनाएं, साँप-बिच्छू के विष से बचाव के कारण शरीर का अंग काटने का निर्णय बहुत से लोगों को विकलांग बनाता है, जिसमेँ स्त्री, पुरुष, बच्चे या बूढ़े कोई भी वर्ग अछूता नहीं है । पोलियो भी इसी प्रकार का एक कारण है जो विकलांगता पैदा करता है | विकलांगता से निपटने के लिए कृत्रिम अंग एक तो बहुत महंगे हैं और दूसरा उनका भारतीय परिस्थितियों से ताल-मेल भी नहीं है जिससे उनका प्रयोग कारगर नहीं है | डॉ. प्रमोद करन सेठी ने एक डॉक्टर के रूप में समूची परिस्थिति को समझकर देसी तरीकों से कम कीमत पर बन सकने वाले अंगों का डिजाइन तैयार किया और उनका उत्पादन शुरू किया । इसके अतिरिक्त उन्होंने इसके वितरण में भी व्यावसायिक दृष्टिकोण न रखकर मानवीय रुख अपनाया और इस तरह उनका ‘जयपुर फुट’ बहुत से गरीब विकलांगों के लिए वरदान बन गया । उनके इस जनकल्याण के कार्य के लिए उन्हें वर्ष 1981 का मैग्सेसे पुरस्कार प्रदान किया गया |
प्रमोद करन सेठी का जीवन परिचय Pramod Karan Sethi Ka Jeevan Parichay
प्रमोद करन सेठी का जन्म 28 नवम्बर 1927 को बनारस में हुआ था । उनके पिता निहाल करन सेठी बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में फिजिक्स (भौतिक शास्त्र) के प्रोफेसर थे ।
प्रमोद की स्कूली शिक्षा आगरा में शुरू हुई । वर्ष 1932 में उन्होंने सेंट जोन स्कूल में प्रवेश लिया । एक साल बाद वह बलवंत राजपूत इन्टर कालेज आगरा में आ गए । दो वर्ष (1942 से 1944) तक वह आगरा कॉलेज के छात्र रहे और वहीँ से उन्होंने सरोजिनी नायडू मेडिकल कॉलेज में डॉक्टरी पढ़ने के लिए प्रवेश लिया । एम.बी.बी.एस. के बाद उन्होंने उसी कॉलेज से डॉ. डी.जी.एन. व्यास की देखरेख ने एम.एस. किया । अस्थि रोग (आर्थोपीडिक्स) उनका विषय था । वहाँ से एम.एस. करके प्रमोद करन सवाई मानसिंह हॉस्पिटल जयपुर आ गए । यहाँ पर इनका ज्यादातर काम फिजियोथैरेपी से सम्बन्धित था तथा यह ऐसे रोगियों के पुनर्वास के लिए काम करते थे, जिनके अंग किन्हीं कारणों से काट देने पड़े हैं । वर्ष 1981 में प्रमोद करन सेठी रिटायर हुए ।
प्रमोद करन सेठी ने इस अस्पताल में काम 1958 में शुरू किया था और नैशनल मेडिकल काउंसिल की राय पर उन्हें अंग भंग तथा पुनर्वास का काम सौंपा गया था । तभी से यह उनके मन में था कि कृत्रिम अंगों की कोई सस्ती तथा भारतीय परिस्थितियों में काम कर सकने वाली व्यवस्था होनी चाहिए । विदेशी डिजाइन एक तो महंगे थे, और ज्यों-के-त्यों इस्तेमाल करने में सुविधाजनक भी नहीं थे । इसलिए इस दिशा में नए सिरे से काम करने की जरूरत थी ।
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ऐसे में उनके एक अनुभवी कारीगर सहयोगी रामचन्द्र ने बेहद पुरानी तकनीक के सहारे सैण्ड मोल्डिंग का इस्तेमाल करते हुए एक खांचा बनाया जिससे किसी भी आकार का, प्राकृतिक सा दिखने वाला पैर बनाया जा सकता था । यह एक सफलता थी । अब उस खाँचे के प्रयोग से पैरों की ढलाई का सवाल सामने था । कोई भी बड़ा, कारखाने वाला इस काम को करने को तैयार नहीं था, तो एक टायरों की वल्कनाइजिंग करने वाले छोटे स्थानीय कारीगर ने इस काम में मदद करना स्वीकार किया ।
प्रमोद करन सेठी, रामचन्द्र की डाई (खांचा) तथा उस टायर वाले के साथ मिलकर काम करने लगे । कई मोल्ड निकाले गए, उनके डिजाइन में बदलाव किया गया । कई प्रयोगों के बाद अन्तिम रूप देकर पैर बनाया जा सका । प्रमोद करन ने उन पैरों के लिए एक खोल-कवच तैयार किया जो पूरी तरह नए डिजाइन का था और उसमें लचीलेपन की गुंजायश थी । अन्तत: अच्छी पकड़ वाला, और ठीक से जुड़ सकने वाला ‘जयपुर फुट’ तैयार हुआ ।
यह ‘जयपुर फुट’ तीन रंगों में तैयार किए गए जो हल्के बादामी, बादमि तथा पक्के रंगों के थे । इसी तरह एल्युमीनियम का पैर भी गाँव के कारीगरों से तैयार कराया गया । ‘जयपुर फुट’ का डिजाइन इस तरह का रखा गया कि चौड़े पंजे की सैंडिल भी उस पर पहनी जा सके । यह एल्युमीनियम के पैर सालों साल चलने वाले थे । पोलियो ग्रस्त बच्चों के लिए हल्के और सस्ते कैलियर भी बनाए गए । यह सारा काम कुशल लेकिन अनपढ़ कारीगरों के हाथों प्रमोद करन सेठी ने कराया । उन कारीगरों ने भी अपने मन में गर्व महसूस किया कि वह बड़े काम में हाथ बँटा पा रहे हैं ।
‘जयपुर फुट’ का यह सेट तो बन गया, यह उतना मँहगा भी नहीं था, लेकिन विपन्न विकलांग के लिए वह भी सस्ता नहीं था, हालाँकि खबर सुनकर ये लोग जैसे-तैसे चलकर जयपुर पहुँचने लगे थे ।
1975 में ‘महावीर सोसाइटी ऑफ फिजिकली हैन्दिकैप्ड्स ने जो कि विकलांग लोगों की मदद करने वाली एक धार्मिक संस्था थी, यह तय किया कि वह जैनियों के पर्वों पर होने वाली अनुदान से प्राप्त राशि डॉ. सेठी को देंगे । इसके लिए अनुदान फंड की इकाई गिफ्ट का मूल्य ढाई हजार रुपया रखा गया जिससे विकलांग व्यक्ति को एक कृत्रिम अंग तथा उसके आने-जाने का किराया दिया जा सके । वर्ष 1975 में कुल सत्तावन इकाई गिफ्ट लिए गए जो 1980 में बढ्कर 2035 हो गए । यह एक स्थायी सहयोग डॉ. सेठी को मिलने लगा ।
डॉ. सेठी ने अपने डॉक्टरी ज्ञान के साथ कारीगरों, मरीजों तथा दूसरे सहयोगियों को इस पुनर्वास कार्यक्रम में शामिल किया । उनके मेडिकल सहयोगी इन डिजाइनों में सुधार करते गए । उनके कृत्रिम अंग ऐसे बने कि उन्हें पहन कर विकलांग व्यक्ति अपनी खेती-बाड़ी, चलना-फिरना यहाँ तक कि पेड़ों पर चढ़ना तक कर सका । पुनर्वास अनुसंधान केन्द्रों में विकलांगों के लिए काम धंधा सीखने की व्यवस्था की गई । उन्हें कृत्रिम अंगों का सुविधाजनक प्रयोग सिखाया जाने लगा । यह एक रोमांचक अनुभव था कि एक कटे पैर वाला आदमी अब कृत्रिम पैर लगा कर साइकिल चलाकर आना-जाना कर पा रहा है ।
सोच में मानवीयता का आधार लिए डॉ. प्रमोद करन सेठी के जीवन के कुछ प्रसंग महत्त्वपूर्ण हैं । ‘जयपुर फुट’ के विकास के दौर में किसी ने उनसे प्रश्न किया था कि सारी दुनिया में टेस्नोलॉजी इतना आगे पहुँच गई है और जयपुर फुट में पैर अभी भी एल्युमिनियम का लग रहा है, जब कि प्लास्टिक को एल्युमिनियम की जगह लाया जा सकता है । डॉ. प्रमोद करन ने हँस कर जवाब दिया था कि मैं जानता हूँ कि यह पैर जिन लोगों के लिए हैं । इन्हें टूट-फूट की दशा में लोकल कारीगर भी वैल्डिंग से या ठोक-पीट कर सुधार सकता है लेकिन क्या पौलीथीन या प्लास्टिक का पैर इस तरह सुधारा जा सकता है. ..? बताइए.. .पूछने वाला निरुत्तर था ।
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इसी तरह एक बार प्रमोद करन से किसी ने एक अच्छे सर्जन की खासियत के बारे में सवाल किया था । डॉ. सेठी का जवाब था कि सर्जन को तीन पैमानों पर जाँचा जाना चाहिए । पहला तो हैड, यानी दिमाग, यानी समझ और ज्ञान, दूसरा हार्ट यानी भावना तथा इंसानी जज्वात की समझ, तीसरा हैण्ड यानी हाथ । बिना हाथ और उँगलियों की कुशलता के कितना भी ज्ञानी सर्जन काम का नहीं है । डॉ. सेठी के ये तीनों एच (H) उनकी नजर का विस्तार सामने लाते हैं । अपने जयपुर फुट के अद्भुत काम के लिए डॉ. प्रमोद करन सेठी का नाम 1982 में गिनीज अवार्ड फॉर साइंटिफिक अचीवमेंट पाने वालों में जुड़ गया । उसी वर्ष 1982 में राजस्थान यूनिवर्सिटी ने उन्हें डी.एस.सी. मानद उपाधि प्रदान की । 1983 में उन्हें आर.डी.बिड़ला अवार्ड फॉर आउट स्टैडिंग रिसर्च दिया गया । उन्हें रोटरी इन्टरनैशनल अवार्ड भी मिला तथा वह ब्रिटिश रॉयल के फैलो भी नियुक्त हुए । 1981 में उन्हें पद्मश्री की उपाधि प्राप्त हुई ।
6 जनवरी 2008 को डॉ. प्रमोद करन सेठी को दिल का दौरा पड़ा और वह अपनी पत्नी सुलोचना, तीन बेटियों एवं एक बेटे को अकेला छोड्कर दिवंगत हो गए ।
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