
सत्यजित राय की जीवनी (Satyajit Ray Biography In Hindi Language)
नाम : सत्यजित राय
पिता का नाम : सुकुमार राय
मां का नाम : सुप्रभा राय
जन्म : 2 मई 1921
जन्मस्थान : कलकत्ता
मृत्यु : 23 अप्रैल 1992
उपलब्धियां : रमन मैग्सेसे (1967), भारत रत्न (1992), दादासाहेब फालके (1985), ‘पद्म भूषण’ (1965), लाइफ टाइम अचीवमेंट के लिये ऑस्कर (1992), ‘स्पेशल जूरी अवार्ड’ (1981) |
फिल्मों और लेखन के माध्यम से देश की सच्ची और बेबाक मार्मिक तस्वीर प्रस्तुत करने वाले सत्यजित राय एक विश्व विख्यात भारतीय थे | इनका भारतीय सिनेमा में योगदान बांग्ला फिल्मों के माध्यम से था और उनकी फिल्मों ने जितने पुरस्कार भारत में जीते उनसे कहीं अधिक उन्हें विदेशों से मिले । उन्होंने फिल्म-निर्माण और फिल्मों की पटकथा के अतिरिक्त चालीस से अधिक पुस्तकें बांग्ला भाषा में लिखी जिनमें गम्भीर साहित्य के साथ-साथ बाल साहित्य भी लिखा गया | साहित्य एवं फिल्म जगत के इस अमूल्य योगदान के लिए इन्हें वर्ष 1967 का मैग्सेसे पुरस्कार प्रदान किया गया |
सत्यजित राय की जीवनी Satyajit Ray Biography In Hindi
सत्यजित राय का जन्म 2 मई 1921 को कलकत्ता में हुआ था । कला और संगीत के संस्कार उन्हें विरासत में मिले थे । इनके दादा उपेन्द्रकिशोर राय एक प्रसिद्ध लेखक, चित्रकार, वायलन वादक तथा संगीतकार थे । पिता सुकुमार राय भी छपाई के काम तथा पत्रकारिता से जुड़े थे ।
सत्यजित राय अपने पिता की मृत्यु के समय केवल तीन वर्ष के थे । उनका लालन-पालन उनकी माँ ने अपने भाई के घर जाकर संघर्षपूर्वक किया । सत्यजित राय की शिक्षा उनकी आठ वर्ष की उम्र में शुरू हुई । उसके पहले उन्हें उनकी मां ही पढ़ाती रहीं । कलकत्ता के बालीगंज के सरकारी स्कूल में उन्होंने दाखिला लिया और वहीं से पन्द्रह वर्ष से कुछ कम उम्र में ही हाई स्कूल पास किया । पढ़ने-लिखने में वह एक औसत छात्र रहे । उनकी कॉलेज की पढ़ाई प्रेसीडेंसी कॉलेज में हुई । पहले दो वर्ष उन्होंने साइंस पढ़ी लेकिन तीसरे वर्ष अर्थशास्त्र ले लिया क्योंकि उनके मामा ने कहा था कि यदि वह इकोनॉमिक्स से ग्रेजुएट हो जाते हें तो वह उन्हें कहीं काम दिलवा देंगे ।
1939 में सत्यजित राय ने ग्रेजुएशन पूरा किया और तय किया कि वह आगे नहीं पढ़ेंगे । उनकी माँ इस पक्ष में नहीं थीं कि वह 18 साल की छोटी उम्र से कमाने के चक्कर में फँस जाएँ । उन्होंने समझा-बुझाकर सत्यजित को मनाया और उन्होंने शांति निकेतन में चित्रकारी पढ़ना स्वीकार कर लिया लेकिन रचनात्मक आग्रहों के चलते सत्यजित ने उसे पूरा करने के पहले अपनी अलग राह चुन ली ।
स्कूल के समय से ही सत्यजित संगीत और फिल्मों के दीवाने हो गए । वह समय ग्रामोफोन का था और रेकार्ड ही मनचाहा संगीत सुनने का जरिया थे । सत्यजित को पाश्चात्य फिल्मों और संगीत का चस्का था और उसके लिए वह सस्ते बाजार में भटका करते थे । फिल्मों को उन दिनों बाइस्कोप कहा जाता था । सत्यजित हॉलीबुड सिनेमा देखने भागते थे और पत्रिकाओं में वहाँ की नायिकाओं और नायकों की तस्वीरें खोजा करते थे ।
पाश्चात्य शास्त्रीय संगीत तथा सिनेमा-बाइस्कोप के साथ एक तीसरा जुनून उन्हें चित्रकारी का सवार हुआ था । यह प्रभाव उन्होंने शान्ति निकेतन से उठाया था । उम्र के शुरुआती दिनों में वह व्यावसायिक चित्रकार बनना भी चाहते थे इसीलिए उनकी माँ ने उन्हें शान्ति निकेतन के लिए प्रेरित किया था । शान्ति निकेतन में सत्यजित राय नन्दलाल बोस की देखरेख में सीख रहे थे । नन्दलाल बोस को बांग्ला कला के पुनर्जागरण का नायक माना जाता था । उसी दौरान राय ने कलकत्ता की एक विज्ञापन कम्पनी के लिए कुछ काम किया था, जिसने राय को 1950 में यूरोप के टूर का पुरस्कार दिलाया । सत्यजित राय यूरोप में छह महीने रहे । फिल्मों का जुनून उन पर छाया हुआ था । उन्होंने लन्दन फिल्म क्लब की सदस्यता ले ली और फिल्में देखने लगे । उन्होंने साढ़े चार महीनों के दौरान नब्बे फिल्में देखी । ‘बाइसिकल थीब्स’ और ‘लूसिनिया स्टोरी एण्ड अर्थ’ ने उन्हें बहुत प्रभावित कया और उन्हें इससे फिल्मों की ताकत का एहसास हुआ ज्यां रिनोर की ‘द रिवर’ देख कर तो वह इतने बेचैन हो गए कि वह फिल्म बनाने के क्षेत्र में उतर ही पड़े ।
फिल्मों को लेकर बहुत पहले उनका रुझान नायक नायिकाओं पर था लेकिन बाद में वह निर्देशन कला में बारीकी खोजने लगे । और कॉलेज के दिनों से ही लुबित्श, जॉन फोर्ड, फ्रैंक काप्ता तथा विलियम वायलार जैसे निर्देशकों की प्रस्तुतियों को समझने की कोशिश करने लगे । ‘लाइट एण्ड साउण्ड’ के तो वह नियमित ग्राहक ही बन गए ।
अक्टूबर 1952 में सत्यजित राय ने फिल्म बनाने का निर्णय लिया । उन्होंने ‘पथेर पांचाली’ उपन्यास को याद किया । विभूतिभूषण बनर्जी का यह उपन्यास उन्हें ठीक लगा और वह आठ लोगों की टोली के साथ फिल्म बनाने में जुट गए । उन आठ लोगों में ज्यादातर नौसिखिये थे और वही सब अभिनय भी करते थे और टेकनीशियन भी थे । पैसे का कोई साधन न होने की वजह से फिल्म अधबीच में रुक गई । तीन साल के ठहराव के बाद पश्चिमी बंगाल सरकार की वित्तीय सहायता से फिल्म पूरी हुई । यह सत्यजित राय का पहला प्रयास था ।
1955 में बनी इस फिल्म ‘पथेर पांचाली’, जिसका अर्थ है रास्ते का गाथागीत, सत्यजित राय के लिए देश में कोई बड़ी व्यावसायिक सफलता लेकर नहीं आई, लेकिन अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर इसने तहलका मचा दिया । 1956 में ही इसे केन्स में ‘बेस्ट हयूमन डाक्यूमेंट’ का पुरस्कार मिला तथा डेनमार्क का बाडिल अवार्ड मिला जो कि सर्वश्रेष्ठ गैर-यूरोपीय फिल्म को दिया जाता है । इस फिल्म ने 1955 में राष्ट्रपति स्वर्ण पदक तथा रजत पदक प्राप्त किया, जो उन्हें नई दिल्ली में प्रदान किया गया ।
1956 में उन्होंने ‘अपराजिता’ बनाई । 1958 में ‘जल्साघर’ फिर ‘अपूर संसार, । ‘देवी’, ‘तीन कन्या’, ‘अभियान’, ‘महानगर, ‘चारुलता’, ‘नायक’, सत्यजित राय की एक के बाद एक फिल्में आती रहीं और हर फिल्म राष्ट्रीय, अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कार, सम्मान जीतती रहीं । उनकी फिल्में ज्यादातर बंगाल की पृष्ठभूमि पर बनीं और उनका रुझान इसी बात पर रहा कि वे सच का वह पक्ष उजागर करें, जो प्राय: दूसरे फिल्मकार छोड़ देते हैं । गरीबी, भुखमरी तथा भावात्मक क्रूरता यह सब सत्यजित राय की फिल्मों में शामिल किए गए । फिल्मांकन में भी नकलीपन की झलक उन्हें बरदाश्त नहीं थी ।
एक बार 1956 में अपराजिता के लिए इन्हें जुगनुओं का झुण्ड फिल्माना था । असली जुगनुओं की लाइट इतनी कमजोर थी कि कैमरे के लिए उसे दिखा पाना सम्भव नहीं था । बल्बों की झालर से वह बात नहीं बन रही थी, जो सत्यजित राय को मंजूर हो । आखिर उन्हें एक आइडिया आया । उन्होंने कुछ लोगों को अँधेरे में, काले कपड़े से ढक कर खड़ा किया और उनके हाथ में छोटे जलते-बुझते बल्ब थमा दिए । यह फिल्मांकन सत्यजित राय को भा गया और तब जाकर उनको अपने काम पर सन्तोष हुआ ।
सत्यजित राय ने 1961 में रवीन्द्रनाथ टेगौर पर एक डाक्यूमेंट्री फिल्म भी बनाई, जिसे भारत में राष्ट्रपति स्वर्ण पदक पुरस्कार मिला तथा दो और अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कार मिले । प्रेमचन्द की कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ पर 1977 में सत्यजित राय ने हिन्दी फिल्म बनाई जिसे राष्ट्रीय फिल्म समारोह में वर्ष की सर्वश्रेष्ठ फिल्म घोषित किया गया । अपनी फिल्म प्रस्तुतियों द्वारा सत्यजित राय ने इतने सारे राष्ट्रीय, अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कार बटोरे जितने किसी अकेले भारतीय फिल्मकार को नहीं मिले ।
उन्हें तेरह बार फिल्मों के लिए भारत के राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त हुए । उनके कुल तिरासी फिल्म पुरस्कारों में अड़तालीस विदेशी फिल्म मर्मज्ञों द्वारा दिए गए । प्रेमचन्द की ही एक कहानी ‘सद्गति’ को 1981 में नई दिल्ली में ‘स्पेशल जूरी अवार्ड’ मिला । सत्यजित राय ने हिन्दी में दो फिल्में बनाईं और दोनों ने ही पुरस्कार जीते ।
फिल्मों के अतिरिक्त सत्यजित राय ने चालीस से अधिक पुस्तकों की रचना की, जिनमें उपन्यास, कहानी तथा लेख हैं । उनका सारा रचनात्मक लेखन बांग्ला में हुआ । इस लेखन के अतिरिक्त सत्यजित राय ने अपनी फिल्मों की पटकथाएँ भी बांग्ला में लिखीं और उनके साथ बाकायदा चित्रांकन द्वारा यह बताया कि कथा के किस प्रसंग में दृश्य व्यवस्था कैसी होगी । एक कुशल चित्रकार होने के नाते इन्होंने अपनी पटकथाओं को भी चित्रों के जरिए एक सम्पूर्णता दी जिससे फिल्मांकन पूरी बारीकी से उनकी कल्पना पर खरा उतर सके ।
1948 में सत्यजित राय का विवाह अपने समय की जानी-मानी अभिनेत्री तथा गायिका विजया दास से हुआ । सत्यजित राय के इकलौते पुत्र सन्दीप अब फिल्म निर्देशक के रूप में स्थापित हैं ।
उपलब्धियां
सत्यजित राय को सैंतीस वर्ष की आयु में पद्मश्री सम्मान प्राप्त हुआ । 1965 तथा 1976 में उन्होंने पद्मभूषण की उपाधि पाई तथा 1992 में वह भारत रत्न सम्मान से अलंकृत हुए । उसी वर्ष सत्यजित राय को उनके फिल्मों में ‘लाइफटाईम अचीवमेंट’ के लिए अमेरिका के ऑस्कर से सम्मानित किया गया । जब उनको यह पुरस्कार दिया जाना था, दिल का दूसरा दौरा पड़ा था और वह अस्पताल में भर्ती थे । इस खबर को पाकर पुरस्कार कमेटी उड़कर कलकत्ता आई थी । इन्हें अवार्ड वहीं दिया गया ।
23 अप्रैल 1992 को सत्यजित राय ने दिल के दौरे के बाद इस संसार में अन्तिम साँस ली ।
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