
Sitaphal (Pumpkin) Ki Kheti Kaise Kare सीताफल की उन्नत खेती कैसे करें
यह फसल हमारे देश में अधिकतर ग्रीष्म ऋतु में पैदा की जाती है । इन कद्दुओं को अलग-अलग नाम से पुकारा जाता हैं जिनको एक ही समय उगाया जाता है । इसलिये इनको सदैव-जनक दृष्टि से जाना जाता है । क्योंकि इनको पहचानना भी मुश्किल होता है । सीताफल को सम्पूर्ण भारतवर्ष में उगाया जाता है । सभी कद्दुओं की सब्जी का प्रयोग उत्तरी भारतवर्ष में अनेक त्यौहारों उत्सवों आदि पर हरे रंग के फलों को नयी सब्जी के रूप में इस्तेमाल करते हैं । कच्चे हरे फलों की सब्जी बहुत स्वादिष्ट होती है ।
इस प्रकार से उपरोक्त तीनों जातियां कुकरविटेसी परिवार के अन्तर्गत आता है । जिनको अलग-अलग नाम से भी जाना जाता है । C.Moschata को सीताफल, C.Pepo को चप्पन कद्दू तथा C.Maxima को विलायती कद्दू के नाम से जाना जाता है । सीताफल को अधिकतर कच्चे व पके हुए फलों के रूप में भी सब्जी के लिए प्रयोग करते हैं । चप्पन कद्दू का ग्रीष्म-ऋतु यानि जायद में उत्पादन किया जाता है । दोनों उपरोक्त फलों को मैदानी भागों में उगाया जाता है । विलायती कद्दू को पहाड़ी-क्षेत्रों में अधिक उगाते हैं ।
इन कद्दूओं के सेवन से स्वास्थ्य को पोषक-तत्वों की भी पर्याप्त मात्रा में पूर्ति होती है । इसके कच्चे हरे रंग के फलों को अधिक प्रयोग किया जाता है । फलों का रायता, हलवा तथा सब्जी के रूप में इस्तेमाल किया जाता है । इन फलों में पोषक-तत्व जैसे- कैलोरीज, पोटेशियम, सल्फर, फास्फोरस, प्रोटीन तथा विटामिन्स का अच्छा स्रोत है ।
सीताफल की खेती के लिए आवश्यक भूमि व जलवायु (Soil and Climate For Pumpkin Kheti)
इन जातियों की फसल के लिये गर्म मौसम चाहिए तथा जायद की फसल के लिये ठन्डी-गर्मतर जलवायु की आवश्यकता पड़ती है । इन फसलों के फलों को ठन्ड या पाले से बचाना चाहिए क्योंकि फसल के लिये कम तापमान और अधिक आर्द्रता ठीक नहीं होता है । अर्थात् अधिक तापमान अधिक उत्पादन के लिये उत्तम माना जाता है । उगने के लिए तापमान 18 डी० से० से 22 डी० से० के बीच का सबसे अच्छा होता है ।
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सीताफल की खेती के लिए खेत की तैयारी (Sitaphal Ki Kheti Ke Liye Khet Ki Taiyari)
इन फसलों का उत्पादन विभिन्न प्रकार की भूमियों में किया जा सकता है । परन्तु बलुई दोमट भूमि को कुकरविटस के लिये सर्वोत्तम पाया गया है । फसलों को रेतीली भूमि-गंगा, यमुना तथा अन्य नदियों की खाली भूमि में अच्छी अगेती पैदावार ली जा सकती है । भूमि के लिये जलोत्सारण का उचित प्रबन्ध होना चाहिए । भूमि का पी. एच. मान 6.0-7.0 के बीच है ।
बुवाई के लिये खेत की 3-4 जुताई करनी चाहिए । रेतीली भूमि के लिए दो जुताई पर्याप्त होती हैं । इस प्रकार से खेत की जुताई करके मिट्टी को बारीक कर लेना चाहिए । भारी मिट्टी में ढेले आदि नहीं रहने चाहिए तथा तैयार होने पर छोटी-छोटी क्यारियां बनाकर खेत की मेडबन्दी करनी चाहिए । क्यारियों के बीच नालियों का होना जरूरी है ।
बगीचों के लिये कम बढ़ने वाली जाति को बोना चाहिए । बगीचे में चार या अधिक बोना चाहिए । इसके लिए भूमि को खोदकर ठीक प्रकार से बोना चाहिए । खुदाई के समय देशी खाद को भी मिला देना चाहिए जिससे मिट्टी उपजाऊ बन जाए ।
गोबर की खाद एवं रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग (Use of Manure and Fertilizers)
फसल के लिये गोबर की खाद ट्रैक्टर ट्रौली प्रति हैक्टर डालना चाहिए । खेत में हो सके तो राख की मात्रा भी डालनी चाहिए । रासायनिक खाद 50-60 कि.ग्रा. यूरिया तथा 70-80 कि.ग्रा. डाई अमोनियम फास्फोरस प्रति हैक्टर देना चाहिए । ये मात्रा समय-समय पर जैसे आधी मात्रा यूरिया की पूरी मात्रा फास्फेट की खेत तैयार करते समय बुवाई से दो सप्ताह पहले मिट्टी में भली-भांति मिला देना चाहिए । शेष यूरिया की मात्रा को बुवाई से 20-25 दिन के बाद पौधों से बचाकर डालना चाहिए तथा ध्यान रहे कि सुबह के समय खाद न छिड़कें ।
प्रमुख जातियां (Improved Varieties)
निम्नलिखित जातियां अलग-अलग कद्दूओं के लिये विकसित हैं-
1. सीताफल (Pumpkin)- लकी चन्दन, लार्ज रेड, लार्ज राउण्ड तथा टोला फलेस आदि जातियां अच्छी पैदावार देती हैं । फलों का आकार व रंग अलग-अलग होता है ।
2. चप्पन कद्दू (Summer Squesh)- अर्ली यलो, पोलीफीक, ग्रीन हुव्वार्ड तथा गोल्डन हुव्वार्ड आदि जातियां चप्पन कद्दू की विकसित हैं । इनके फल हरे रंग के तथा लम्बे होते हैं ।
3. विलायती कद्दू (Winter Squesh)- अर्का सूर्यमुखी-ये एक मुख्य अधिक उपज देने वाली किस्म हैं जो भारतीय उद्यान अनुसंधान संस्थान बंगलौर द्वारा विकसित की गयी है ।
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा एक नई जाति विकसित की है जो कि संकर जाति है-पूसा-अलंकार । यह किस्म अधिक उपज के लिये अच्छी है तथा गुण, स्वाद के दृष्टिकोण से उत्तम माना जाता है । शीघ्र तैयार होती है ।
बुवाई का समय, ढंग तथा दूरी (Sowing Time, Method and Distance)
सीताफल तथा अन्य कद्दूओं की बुवाई भारत के मैदानी भागों में जनवरी के अन्त से मार्च तक की जाती है तथा दूसरी फसल जो वर्षा ऋतु की होती है जून-जुलाई में बोई जाती है । इसको खरीफ की फसल कहते हैं । बोने का तरीका भी अन्य फसल की तरह-थामरे बना कर समान दूरी पर बीज बो दिये जाते हैं । कछ क्षेत्रों में नवम्बर में बोई जाने वाली फसल को पाले से बचाना अति आवश्यक है । पहाड़ी क्षेत्र में अप्रैल में बोते हैं ।
बीजों को हाथ से बोया जाता है तथा जायद की फसल की दूरी कतार-से-कतार की दूरी 150 सेमी. तथा थामरे से थामरे की दूरी 75 सेमी. रखनी चाहिए व खरीफ की फसल के लिए कतारों की दूरी 150 सेमी. तथा थामरे से थामरे 90 सेमी. रखनी चाहिए । एक थामरे में 3-4 बीज समान दूरी पर बोने चाहिए तथा बीज की गहराई 5-6 सेमी. से अधिक नहीं रखनी चाहिए ।
बीज की मात्रा (Seeds Rate)
बीज की मात्रा को अलग-अलग मौसम के अनुसार बोया जाता है । जायद की फसल के लिये अधिक बीज की आवश्यकता होती है तथा ग्रीष्म, खरीफ की फसल की भी कम आवश्यकता पड़ती है । इस प्रकार से 8-9 कि.ग्रा. बीज प्रति हैक्टर की दर से पर्याप्त होता है । बीज को ठीक प्रकार से बोना चाहिए और कच्चे, कटे, टूटे बीज ना हो तथा अंकुरण अच्छा होना चाहिए । बगीचे के लिये 25-30 ग्राम बीज 8-10 वर्ग मी के लिए पर्याप्त होते हैं । इसको गमलों में भी लगाया जा सकता है । एक गमले में दो बीज से अधिक न लगायें ।
सिंचाई एवं खरपतवार-नियन्त्रण (Irrigation and Weeds Control)
सिंचाई फसलों की मौसम के अनुसार करनी चाहिए क्योंकि जायद वाली फसल को अधिक सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है । पहली सिंचाई बीज अंकुरण के 8-10 दिनों के बाद करनी चाहिए तथा बाद में 10-15 दिन के बाद नमी के अनुसार करते रहना चाहिए । वर्षा ऋतु या खरीफ की फसल की शुरू में एक-दो सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है । बाद में वर्षा द्वारा ही सिंचाई होती रहती है ।
बगीचों में या गमलों में उगाने वालों के लिए सिंचाई का ध्यान रखना चाहिए । ध्यान रहे अंकुरण के लिए भी पर्याप्त नमी होनी चाहिए । पौधे बड़े होने पर 3-4 दिन के बाद पानी देना चाहिए तथा गमलों में नमी होनी चाहिए तथा बाद में फव्वारे से लगभग रोजाना हल्का-हल्का पानी देते रहना चाहिए । पानी हमेशा शाम को या दोपहर बाद ही देना चाहिए । पानी गमलों में एक ही जगह न देकर फैला कर देना चाहिए अन्यथा पौधों की जड़ों की मिट्टी हट जाती है ।
सभी फसलों की सिंचाई के बाद निकाई करनी चाहिए क्योंकि फसल में नमी पाकर घास बढ़ जाती है जोकि पौधों के पोषक-तत्वों को स्वयं लेना शुरू कर देती है । इसलिए सिंचाई के 3-4 दिन बाद ही अधिक गीली मिट्टी न होने पर निकाई-गुड़ाई करने की सिफारिश की जाती है । बगीचे व गमलों की भी निकाई-गुड़ाई करनी अति आवश्यक है । गुड़ाई के बाद एक चम्मच यूरिया प्रति पौधा जड़ों से अलग करके मिट्टी में मिला देना चाहिए ।
सहारा देना (Supporting)- फैलने की जातियों को सहारा देना अति आवश्यक है । पेड़, बड़ी लकड़ी, तार आदि का प्रयोग करते हैं ।
फलों की तुड़ाई (Harvesting)- फलों की तुड़ाई समय-समय पर की जाती है । सीताफल की बेल अधिक बढ़ने से फल को सहारा दिया जाता है । पेड़ आदि पर चढ़ने से फल को ऊपर से तोड़ लिया जाता है । फलों को चाकू, दरांती आदि से काट लिया जाता है तथा अन्य दोनों कद्दुओं को तोड़ना बहुत आसान होता है क्योंकि फल नीचे ही पौधों के तने के साथ ही लगे रहते हैं । सावधानी से हाथ द्वारा अलग कर लिया जाता है तथा फल बोने से लगभग 60-75 दिनों में जाति के अनुसार तैयार होते रहते हैं । फलों को बाजार की मांग अनुसार तोड़ते रहना चाहिए । फलों को कच्चे ही तोड़ना चाहिए । सीताफल के पकने के बाद भी सब्जी में प्रयोग किया जाता है । बगीचों में भी आवश्यकतानुसार तोड़ते रहना चाहिए ।
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उपज (Yield)
इस फसल की पैदावार जाति के आधार पर अलग-अलग होती है क्योंकि सीताफल व कद्दुओं की उपज मौसम के अनुसार होती है । फिर भी औसतन पैदावार 300-500 क्विंटल प्रति हैक्टर की दर से प्राप्त उपज हो जाती है ।
बगीचों में भी सही देखभाल के पश्चात् 30-35 किलोग्राम फल 8-10 वर्ग मी. क्षेत्र में प्राप्त हो जाते हैं और सही देखरेख के बाद अधिक पैदा की जा सकती है जो कि एक छोटे परिवार को मौसमी सब्जी मिलती रहती है ।
भण्डारण (Storage)- फलों को कुछ दिनों तक कच्चे या परिपक्व तोड़कर छाया या पानी से भिगोकर बोरे की टाट रखकर तथा पानी छिड़ककर ताजा रखा जा सकता है तथा 15-20 डी० से० ग्रेड तापमान पर 20-25 दिनों के लिये रखा जा सकता है तथा 10-15 डी० सेग्रेड तापमान के साथ 75 प्रतिशत आर्द्रता पर फलों को सुरक्षित रखा जा सकता है । सीताफल जैसे फलों को छायादार कमरों में जिसमें हवा का आदान-प्रदान हो रखा जा सकता है ।
रोगों से सीताफल के पौधों की सुरक्षा कैसे करें Rogon Se Sitaphal Ke Paudhon Ki Suraksha Kaise Kare
कीट-(1) Red Pumpkin Beetle (2) Fruitfly (3) Cutwarm नियन्त्रण खीरा, लौकी, तोरई आदि जैसा है ।
रोग-(1) मोजेक रोग (2) Downy & Powdery Mildew (3) Anthracnose पर नियन्त्रण लौकी, खीरा, तोरई आदि फसलों की तरह किया जाता है ।