सोंभू मित्रा का जीवन परिचय Sombhu Mitra Ki Biography In Hindi

Sombhu Mitra Jeevan Parichay

सोंभू मित्रा का जीवन परिचय (Sombhu Mitra Ki Biography In Hindi Language)

Sombhu Mitra Jeevan Parichay

नाम : सोंभू मित्रा
पिता का नाम : शरत कुमार
माता का नाम : शतदल वासिनी
जन्म : 22 अगस्त 1915
जन्मस्थान : कलकत्ता
मृत्यु : 19 मई 1997
उपलब्धियां : ‘कालिदास सम्मान’ , ‘देसी कोट्‌टमा’, (विश्व भारती द्वारा) , रवीन्द्र भारती द्वारा डीलिट् की उपाधि, पद्मभूषण (1976), मैग्सेसे (1976) |

भारतीय रंगमंच को एक रचनात्मक आन्दोलन का रूप देने के लिए सोंभू मित्रा का नाम लिया जाता है । इन्होने थियेटर को अपना जीवन बनाना तब तय किया था, जब न सिर्फ बंगाल में बल्कि भारत में थियेटर तथा नाटक अभी अपना भविष्य तय नहीं कर पाए थे । व्यवसायी थियेटर से हटकर इनका झुकाव गम्भीर रचनात्मक थियेटर की ओर हुआ और वह इण्डियन पीपुल्स थियेटर एसोसियेशन (IPTA) से जुड़ गए | ‘बहुरूपी’ सोंभू मित्रा का अपना मंच बना जिससे उन्होंने अनेकों नाट्‌य प्रस्तुतियां दीं । इनका रुझान नाटकों के माध्यम से सामान्य जन के सुख-दुख तक पहुँचने की ओर था जिसे इन्होंने शास्त्रीय और प्रासंगिक, पाश्चात्य और भारतीय हर ढंग से उठाया और भारतीय सांस्कृतिक सन्दर्भ में ढालकर प्रस्तुत किया । वह नाटक लिखते थे, नाटकों का निर्देशन करते थे, वह कुशल और भावप्रवण अभिनेता भी थे | फिल्मों के माध्यम से भी अपना सन्देश अपने दर्शकों को दिया तथा थियेटर की दुनिया से सम्बन्धित पुस्तकें भी लिखीं | सोंभू मित्रा के थियेटर से इस रचनात्मक जुड़ाव के लिए तथा उनके श्रेष्ठ अभिनय, लेखन तथा प्रस्तुतियों के लिए उन्हें वर्ष 1976 का मैग्सेसे पुरस्कार प्रदान किया गया ।

सोंभू मित्रा का जीवन परिचय Sombhu Mitra Jeevan Parichay

सोंभू मित्रा का जन्म 22 अगस्त 1915 को कलकत्ता में हुआ था । अपने पिता शरत कुमार मित्रा तथा माँ शतदल वासिनी मित्रा की वह छठी सन्तान थे । इनकी माँ का देहान्त सोंभू मित्रा की बारह वर्ष की उम्र में हो गया था और उनके पिता ने अपनी सभी सन्तानों का पालन-पोषण कठोर अनुशासन में किया था, जिसमें थियेटर देखने पर पाबन्दी भी उनका एक नियम था ।

सोंभू मित्रा की स्कूली शिक्षा चक्रबेरिया मिडिल इंग्लिश स्कूल तथा बालीगंज गवर्नमेंट स्कूल, कलकत्ता में हुई थी । स्कूल से ही, वह नाटकों में रुचि लेने लगे थे । 1931 में उन्होंने सेंट जेवियर कॉलेज कलकत्ता में प्रवेश लिया और तभी उनके लिए थियेटर देखना शुरू हो पाया । उसके कुछ ही समय बाद उन्होंने तय कर लिया कि वह थियेटर को पूरी तरह से अपनी जीविका के रूप में अपना लेंगे । चौबीस वर्ष की उम्र में उन्होंने रंगमहल थियेटर कलकत्ता में अभिनय से अपना काम शुरू किया । उसके बाद वह मिनर्वा पहुँचे तथा नाट्‌य निकेतन और श्री रंगम थियेटर में भी उन्होंने काम किया । इस दौरान उन्हें देश के श्रेष्ठ अभिनेताओं, जैसे शिशिर कुमार भादुड़ी, अहिन्द्रा चौधुरी, नरेश मित्रा तथा मनोरंजन भट्टाचार्य के साथ काम करने का मौका मिला । वह समय न केवल बंगाल के लिए बल्कि पूरे भारत के लिए नाटकों की दृष्टि से बहुत समृद्ध तथा लोकप्रिय नहीं था । 1930 तक ज्यादातर व्यावसायिक नाटकों का दौर चल रहा था । जिनमें बिना किसी काल्पनिकता के भावुकता से भरे प्रसंग मंचित किए जाते थे । उस समय घिसे-पिटे थियेटर में पारिवारिक कहानियाँ तथा संगीत से भरे मिथकीय नाटक ही सामने आ रहे थे । रवीन्द्रनाथ टैगोर ने भी इस जड़ता को तोड़ने की कोशिश की थी, लेकिन बात नहीं बनी थी ।

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1943 में सोंभू मित्रा ने ‘एण्टी फासिस्ट राइटर्स एण्ड आर्टिस्ट्स एसोसिएशन’ में हिस्सेदारी शुरू की । यह एसोसियेशन साम्यवाद के पक्ष में और फासीवाद के खिलाफ विचारधारा रखती थी । सोंभू मित्रा के जीवन में यह एक महत्त्वपूर्ण और नर्णायक कदम था, जिसने उनको काम की एक नई दिशा दी थी । इसमें उनका विकास थियेटर के एक बहुत सक्रिय व्यक्ति के रूप में हुआ जिसके माध्यम से यह संस्था कुछ ही समय बाद एक थियेटर सगंठन बन गई, जिसे भारतीय जन नाट्य संघ या इण्डियन पीपुल्स थियेटर एसोसियेशन (IPTA) नाम दिया गया । 1944 में IPTA ने अक्टूबर-नवम्बर में अपनी पहली प्रस्तुति के रूप में बिजन ‘भट्टाचार्य के चार अंकों के नाटक ‘नवान्न’ का मंचन किया । यह नाटक बंगाल के भयंकर अकाल पर आधारित था ।

‘नवान्न’ में सोंभू मित्रा ने अभिनय भी किया था जिसमें बंगाल के अकाल पीड़ित किसानों की जिन्दगी दिखाई गई थी । लेकिन नाटक का अन्त एक विश्वास और आशा के साथ व्यक्त किया गया था जिसमें किसानों की सामर्थ्य के प्रति आस्था व्यक्त होती थी । यह नाटक बांग्ला के अतिरिक्त हिन्दी में भी खेला गया तथा इस पर फिल्म भी बनी । इस प्रस्तुति का असर भारतीय नाट्‌य संसार पर जबरदस्त पड़ा था ।

इस नाटक की प्रस्तुति व्यावसायिक नाटकों के शिल्प तथा विषयों से एकदम अलग थी । इसमें संवाद की भाषा, वेशभूषा तथा दृश्य विन्यास कलात्मक होते हुए भी जन जीवन से जुड़ा हुआ था । इसकी सफलता से आतंकित होकर व्यावसायिक नाटक कम्पनियों ने IPTA को किराए पर मंच देने से इंकार कर दिया । यह एक कठिन स्थिति थी लेकिन सोंभू मित्रा ने इसका सामना किया और  ‘नवान्न’ की प्रस्तुतियाँ जारी रहीं । इस एकदम नई तरह के थियेटर को जनता ने अपने बहुत निकट पाया । अगस्त 1947 में देश आजाद हुआ और IPTA पूरी तरह कम्युनिस्ट पार्टी की निजी संस्था जैसी हो गई । 1948 में सोभू मित्रा को लगा कि उन्हें ऐसी संस्था से नहीं जुड़े रहना चाहिए जो कला और नाट्‌य शिल्प का राजनैतिक इस्तेमाल भर करना चाहती है । तभी इन्होंने दूसरे बहुत से लोगों के साथ IPTA से त्यागपत्र दे दिया ।

IPTA से अलग होकर सोंभू मित्रा तथा भट्टाचार्य ने 1948 में ही एक नई संस्था की कल्पना खड़ी की, जिसका नाम ‘बहुरूपी’ रखा । यह नाम नाट्‌य प्रयोजन को बेहद अच्छे ढंग से व्यक्त करने वाला था । 1950 में ‘बहुरूपी’ एक संगठित नाट्‌य मंच की तरह सामने आ गया जिसके केन्द्र में सोंभू मित्रा सक्रिय रूप से काम करने लगे ।

‘बहुरूपी’ का शुरुआती दौर संघर्षपूर्ण रहा । सोंभू मित्रा के कुछ अन्तरंग तथा भरोसेमंद साथी, जो अभी भी 1914 से जुड़े थे उन्होंने सहयोग देने से इंकार कर दिया । इस बीच सोंभू मित्रा का विवाह 1945 में तृप्ति से हो चुका था । तृप्ति भी एक कुशल अभिनेत्री थी तथा सोंभू के साथ नाट्‌य क्षेत्र से जुड़ी हुई थी । इसी संघर्ष के दौर में सोंभू एक बेटी स्नाओली के पिता बने ।

संघर्ष के इस दौर में ‘बहुरूपी’ को आगे बढ़ाने के साथ-साथ सोंभू मित्रा तथा तृप्ति ने फिल्मों में काम करना भी शुरू किया और जल्दी ही उनकी छवि अच्छे फिल्म अभिनेता तथा अभिनेत्री की बन गई । तभी सोंभू मित्रा ने फिल्म निर्देशन में हाथ आजमाया 1945-46 में एक सह निर्देशक के रूप में उन्होंने ‘धरती के लाल’ का निर्देशन किया तथा 1955 में ‘जागते रहो’ लिखी तथा निर्देशित की । ‘जागते रहो’ बंगाली में भी (एक दिन रात्रि नाम से) बनी तथा उसे 1957 में चोकोस्लोवाकिया का ‘कार्लोव वैरी ग्रैंड प्रिक्स’ पुरस्कार मिला । 1959 में सोंभू ने अन्तिम फिल्म ‘शुभ विवाह’ का निर्देशन किया । भले ही फिल्मी दुनिया ने उन्हें बड़ी ख्याति तथा पैसा दिया लेकिन उनका लगाव मंच तथा थियेटर से था और वह फिर पूरे समय के लिए ‘बहुरूपी’ की ओर लौट गए ।

‘बहुरूपी’ के शुरुआती काम ने ही आगे आने वाले समय की प्रस्तुतियों की झाँकी स्थापित कर दी । सोंभू मित्रा का पहला नाटक ‘पथिक’ मंचित हुआ । इसमें तुलसी लाहिड़ी ने काम किया । ‘नवान्न’ की ही तरह इस नाटक पर भी फिल्म बनी जिसे देवकी बोस ने ‘बहुरूपी’ के ही दल को लेकर फिल्माया । बहुरूपी के पहले ही नाट्‌य महोत्सव में जो 1950-51 में आयोजित किया गया, तुलसी लाहिड़ी के ‘पथिक’ तथा ‘छेन्नरा तार’ (ब्रोकेन स्ट्रिंग्स) नाटकों ने नाट्य आलोचकों का ध्यान अपनी ओर खींच लिया । 1951 में ‘बहुरूपी’ ने रवीन्द्रनाथ टैगोर के नाटक ‘चार अध्याय’ का मंचन किया । यह एक जोखिम का काम था क्योंकि टैगोर के नाटक शुरू में सफल नहीं हुए थे । सोंभू मित्रा ने इन्हें बिल्कुल नए तरीके से प्रस्तुत किया जो बेहद सफल रहा । सोंभू मित्रा ने बताया कि रवीन्द्रनाथ टैगोर के नाटकों का निर्वाह उसके संवादों को पद्यरूप में तथा अतिनाटकीय भाषा में गा कर नहीं किया जा सकता । सोंभू ने उसके संवादों को पात्रों तथा नाटक की विषयवस्तु के अनुसार बेहद सरल, सहज भाषा में प्रस्तुत किया । मंच की व्यवस्था तथा नाटक का परिवेश भी उसी विषय को दृष्टि में रख कर किया गया । सोंभू मित्रा ने बहुरूपी के निर्देशक के रूप में आधुनिक, पश्चिमी तथा भारतीय नाट्‌य शैलियों का सहज प्रयोग किया जिससे नाटक के सांस्कृतिक सन्दर्भ देश के दर्शकों के अनुकूल रहे ।

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सोंभू मित्रा द्वारा इब्सन नाटक ‘पुतलीखेला’ एक बेहद प्रासंगिक विषय को बहुत बोल्ड ढंग से सामने लेकर आया जिसमें स्त्री विमर्श को कथा रूप में ऐसे प्रस्तुत किया गया, जैसा पहले कभी नहीं दिखाया गया था ।

इसी तरह 1952 में इब्सन नाटक ‘दसचक्र’ का मंचन बहुरूपी ने किया जिसमें दूषित जल तथा पर्यावरण की चेतना को सोंभू मित्रा ने बेहद प्रभावशाली ढंग से उठाया । पाश्चात्य नाटकों की शृंखला में सोंभू मित्रा का ‘चेखवस एनीवर्सिरी’ तथा ‘राजा ओडियस’ बेहद प्रभावी ढंग से प्रस्तुत होकर सफल रहा । राजा ओडियस में तृप्ति ने भी माँ के रूप में अभूतपूर्व अभिनय दिखाया ।

1950 से 1953 के बीच ‘बहुरूपी’ ने सात महत्त्वपूर्ण नाटक, सोंभू मित्रा के निर्देशन में मंचित किए । 1954 में ‘बहुरूपी’ में टैगोर के नाटक ‘रक्त का राबी’ का मंचन किया । आलोचकों ने माना कि टैगोर के नाटकों का सफल मंचन सोभू मित्रा के निर्देशन कौशल के कारण सम्भव हो पाया है । जहाँ उन्होंने भाषा की संवेदना तथा प्रस्तुति को अनूठे ढंग से नियोजित किया है । इसी तरह ‘पगला घोड़ा’ ‘बाकी इतिहास’ तथा ‘खामोश, अदालत जारी है’ की अद्‌भुत सफलता के पीछे भी सोंभू मित्रा का निर्देशन कौशल सिद्ध होता है ।

सोंभू मित्रा को कालिदास सम्मान, विश्व भारती द्वारा ‘देसी कोट्‌टमा’ उपाधि तथा रवीन्द्र भारती द्वारा डीलिट् की उपाधि के अतिरिक्त वर्ष 1976 में पद्‌मभूषण से सम्मानित किया गया ।

19 मई 1997 को सोंभू मित्रा ने इस संसार से विदा ली ।

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