
विनोबा भावे की जीवनी व उपलब्धियां Vinoba Bhave Biography In Hindi Language
नाम : विनोबा भावे
जन्म : 11 सितम्बर 1895
जन्मस्थान : गाकोडा (कोलाबा)
पुरस्कार: रमन मैग्सेसे (1958), भारतरत्न (1983) मरणोपरांत |
मृत्यु: 15 नवंबर 1982
भारत में भूदान तथा सर्वोदय आन्दोलनों के लिए सुपरिचित सन्त विनोबा भावे भगवदगीता से प्रेरित जनसरोकार वाले नेता थे । वह महात्मा गाँधी से बहुत प्रभावित थे तथा गाँधीजी के साथ उन्होंने देश के स्वाधीनता संग्राम में बहुत काम किया । उनकी आध्यात्मिक चेतना समाज से जुड़ी थी | इसी कारण सन्त स्वभाव के बावजूद उनमें राजनैतिक सक्रियता भी थी । उन्होने सामाजिक अन्याय तथा धार्मिक विषमता का मुकाबला करने के लिए देश की जनता को स्वयंसेवी होने का आह्वान किया । विनोबा भावे के इन्हीं सामाजिक सरोकारों के दायित्वपूर्ण कामों के लिए 1958 में उन्हें सामुदायिक नेतृत्व का पहला मैग्सेसे पुरस्कार प्रदान किया गया ।
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विनोबा भावे का जीवन परिचय Vinoba Bhave Ka Jeevan Parichay in Hindi
11 सितम्बर 1895 को कोलाबा जिले के गाकोडा गाँव में जन्मे विनोबा भावे का असली नाम विनायक नरहरि भावे था और वह जन्म से ब्राह्मण थे । विनोबा के आध्यात्मिक विकास पर उनकी माँ रुक्मिणी देवी का गहरा प्रभाव था । विनोबा भावे ने इसी प्रभाव में महाराष्ट्र के सभी सन्त तथा दार्शनिकों को पढ़ा था | विनोबा भावे की गणित में विशेष रुचि थी ।
वर्ष 1916 में विनोबा भावे अपनी इन्टरमीडियेट की परीक्षा देने मुम्बई जा रहे थे । रास्ते में ही उनका मन बदला और वह बनारस की ओर चल पड़े । उनके मन में अनश्वर ज्ञान तथा अनादि ब्रह्म को जानने की अदम्य इच्छा जागी । बनारस में उन्होंने संस्कृत के पौराणिक ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया । दरअसल, इस घटना ने उनके जीवन की धारा बदल दी ।
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में विनोबा भावे ने गाँधीजी का प्रवचन सुना । वह उनसे इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने गाँधी जी को पत्र लिखा । कुछ पत्राचार के बाद गाँधी जी ने विनोबा भावे को अहमदाबाद के कोचराब आश्रम में मिलने के लिए बुलाया । 7 जून 1916 को विनोबा भावे गाँधी जी से मिले । इस भेंट ने विनोबा भावे को इतना प्रभावित किया कि उनका गाँधी जी से अटूट बंधन जुड़ गया । वह गाँधी जी के आश्रम में उनके सभी काम जैसे पठन-पाठन, चरखा कताई तथा जन सेवा आदि करने लगे ।
1921 में विनोबा भावे ने गाँधीजी के निर्देश पर वर्धा आश्रम के संचालन का काम संभाला । 1923 में विनोबा भावे ने एक मराठी मासिक पत्र ‘महाराष्ट्र धर्म’ के नाम से प्रकाशित करना शुरू किया, जिसमें विनोबा भावे के उपनिषदों पर लिखे निबन्ध छपे । साथ ही इनका जुड़ाव गाँधी जी के रचनात्मक कार्यों, जैसे खादी, ग्रामोद्योग, नई शिक्षा तथा स्वच्छता आदि की तरफ गहरा होता गया ।
23 दिसम्बर 1932 को वह नालवाडी आ गए, जहाँ इन्होंने केवल चरखे पर निर्भर रहकर जीवनयापन का प्रयोग किया । बाद में 1938 में वह बीमार होकर पवनार आश्रम पहुँच गए, जिसे उन्होंने परमधाम आश्रम का नाम दिया । 1940 में विनोबा भावे महात्मा गाँधी द्वारा पहले एकल सत्याग्रही के रूप में चुने गए और महात्मा गाँधी ने उन्हें ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन में भी साथ लिया । पवनार आश्रम में आने के बाद वही उनका स्थायी मुख्यालय बन गया । भारत के स्वतन्त्र होने के बाद विनोबा भावे ने समाज सुधार के आदोलन की शुरुआत की । इस क्रम में भूदान तथा सर्वोदय आन्दोलन बहुत प्रभावी रहे ।
सर्वोदय में विनोबा भावे सबके उदय की बात करते थे । उनकी इस सोच में वह लोग भी शामिल थे, जो निर्धन, विपन्न तथा अशिक्षित थे । उन लोगों के लिए विनोबा जी ने भूदान आन्दोलन शुरू किया । उन्होंने दान में भूमि माँगना शुरू किया ताकि निर्धन विपन्न लोगों के लिए व्यवस्था की जा सके । विनोबा जी कर्मप्रधान व्यक्ति थे इसलिए गीता उनका आदर्श थी । विनोबा जी ने अपने प्रवचनों में गीता का सार बेहद सरल शब्दों में जन-जन तक पहुँचाया ताकि उनका आध्यात्मिक उदय हो सके ।
1970 में उन्होंने यह घोषणा की कि अब वह स्थायी रूप से केवल पवनार में रहेंगे । 25 दिसम्बर 1974 से 25 दिसम्बर 1975 तक उन्होंने एक वर्ष का मौन व्रत रखा । महात्मा गाँधी के गहन अनुयायी होने के कारण वह कांग्रेस पार्टी के निर्विवाद समर्थक थे । 1975 में जब तत्कालीन प्रधानमन्त्री ने लोकतन्त्र तथा संविधान को परे करते हुए आपातकाल लगाया, तब भी विनोबा जी की आस्था इन्दिरा गाँधी तथा कांग्रेस पर बनी रही । वह समय विनोबा भावे के मौन व्रत का था तब उन्होंने एक स्लेट पर लिखकर अपना सन्देश दिया था कि ‘आपात्काल अनुशासन पर्व है’ इस बात को लेकर वह विवाद से घिर गए थे और उनकी आध्यात्मिकता तथा जन सरोकार को संशय से देखा जाने लगा था ।
आध्यात्मिक ज्ञान का उनके भीतर कितना आवेग था यह इस तथ्य से समझा जा सकता है कि 1932 में उन्हें ब्रिटिश सरकार का विरोध करने के अपराध में जेल में डाल दिया गया । जेल में विनोबा भावे ने अपनी मातृभाषा मराठी में साथ के दूसरे कैदियों को एकत्र करके गीता पर शृंखलाबद्ध प्रवचन किए । बाद में यही प्रवचन उनकी पुस्तक ‘गीता प्रवचन’ में संकलित होकर प्रकाशित हुए तथा सभी भारतीय भाषाओं में उनका अनुवाद हुआ । भारत के बाहर भी यह प्रवचन पहुंचे और विविध भाषाओं में अनूदित हुए ।
इन प्रवचनों के बारे में विनोबा भावे का स्वयं यही मानना रहा कि उनके दूसरे काम भले ही लोग भूल जाएँ लेकिन ये प्रवचन तथा पुस्तक हमेशा याद रखी जाएगी ।
उनकी जन चेतना का उदाहरण उनका भूदान कार्यक्रम सामने लाता है । इस कार्यक्रम में विनोबा, पदयात्री की तरह गाँव-गाँव घूमे और इन्होंने लोगों से भूमिखण्ड दान करने की याचना की, ताकि उसे कुछ भूमिहीनों को देकर उनका जीवन सुधारा जा सके । उनका यह आह्वान जितना प्रभावी रहा वह विस्मित करता है । विनोबा भावे की जन नेतृत्व क्षमता का अंदाज इसी घटना से लगता है कि इन्होंने चम्बल के डाकुओं को आत्मसमर्पण के लिए प्रेरित किया और वह विनोबाजी से प्रभावित होकर आत्म-समर्पण के लिए तैयार हो गए ।
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नवम्बर 1982 में विनोबा भावे अस्वस्थ हो गए और उन्होंने देह त्यागने का निर्णय ले लिया । उसके बाद उन्होंने अन्न, जल तथा कोई भी औषधि या पथ्य लेने से इकार कर दिया और 15 नवम्बर 1982 को वह शान्तिपूर्वक मृत्यु को प्राप्त हुए ।
वर्ष 1983 में विनोबा भावे को मरणोपरान्त ‘भारतरत्न’ का अलंकरण प्राप्त हुआ |
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